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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
मृगाग्राम नगर था वहाँ आकर नगर में प्रवेश किया । क्रमशः जहाँ मृगादेवी का घर था, गौतम स्वामी वहां पहुँच गये । तदनन्तर उस मृगादेवी ने भगवान गौतमस्वामी को आते हुए देखा और देखकर हर्षित प्रमुदित हुई, इस प्रकार कहने लगी- 'भगवन् ! आपके पधारने का क्या प्रयोजन है ?' गौतम स्वामी ने कहा - 'हे देवानुप्रिये ! मैं तुम्हारे पुत्र को देखने आया हूँ !' तब मृगादेवी ने मृगापुत्र के पश्चात् उत्पन्न हुए चार पुत्रों को वस्त्र - भूषणादि से अलंकृत करके गौतमस्वामी के चरणों में रखा और कहा - 'भगवन् ! ये मेरे पुत्र हैं; इन्हें आप देख लीजिए।' भगवान् गौतम मृगादेवी से बोले - हे देवानुप्रिये ! मैं तुम्हारे इन पुत्रों को देखने के लिए यहाँ नहीं आया हूँ, किन्तु तुम्हारा जो ज्येष्ठ पुत्र मृगापुत्र है, जो जन्मान्ध व जन्मान्धरूप है, तथा जिसको तुमने एकान्त भूमिगृह में गुप्तरूप से सावधानी पूर्वक रक्खा है और छिपे - छिपे खानपान आदि के द्वारा जिसके पालन-पोषण में सावधान रह रही हो, उसी को देखने मैं यहाँ आया हूँ। यह सुनकर मृगादेवी ने गौतम से निवेदन किया कि वे कौन तथारूप ऐसे ज्ञानी व तपस्वी
जिन्होंने मेरे द्वारा एकान्त गुप्त रक्खी यह बात आपको यथार्थरूप में बता दी । जिससे आपने यह गुप्त रहस्य सरलता से जान लिया ? तब भगवान् गौतम स्वामी ने कहा- हे भद्रे ! मेरे धर्माचार्य श्रमण भगवान् महावीर ने ही मुझे यह रहस्य बताया है ।
जिस समय मृगादेवी भगवान् गौतमस्वामी के साथ वार्तालाप कर रही थी उसी समय मृगापुत्र दारक के भोजन का समय हो गया । तब मृगादेवी ने भगवान् गौतमस्वामी से निवेदन किया- 'भगवन् ! आप यहीं ठहरिये, मैं अभी मृगापुत्र बालक को दिखलाती हूँ ।' इतना कहकर वह जहाँ भोजनालय था, वहाँ आकर वस्त्र- परिवर्तन करती है । लकडे की गाड़ी ग्रहण करती है और उसमें योग्य परिमाण में अशन, पान, खादिम व स्वादिम आहार भरती है। तदनन्तर उस काष्ठ- शकट को खींचती हुई जहाँ भगवान् गौतमस्वामी थे वहाँ आकर निवेदन करती है- 'प्रभो ! आप मेरे पीछे पधारें । मैं आपको मृगापुत्र दारक बताती हूँ ।' गौतमस्वामी मृगादेवी के पीछे-पीछे चलने लगे । तत्पश्चात् वह मृगादेवी उस काष्ठ - शकट को खींचती - खींचती भूमिगृह आकर चार पड़ वाले वस्त्र से मुँह को बांधकर भगवान् गौतमस्वामी से निवेदन करने लगी- 'हे भगवन् ! आप भी मुंह को बांध लें ।' मृगादेवी द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर भगवान् गौतमस्वामी ने भी मुख- वस्त्रिका से मुख को बांध लिया । तत्पश्चात् मृगादेवी ने पराङ्मुख होकर जब उस भूमिगृह के दरवाजे को खोला उसमें दुर्गन्ध निकलने लगी । वह गन्ध मरे हुए सर्प यावत् उससे भी अधिक अनिष्ट थी ।
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तदनन्तर उस महान् अशन, पान, खादिम, स्वादिम के सुगन्ध से आकृष्ट व मूर्च्छित हुए उस मृगापुत्र ने मुख से आहार किया । शीघ्र ही वह नष्ट हो गया, वह आहार तत्काल पीव व रुधिर के रूप में परिवर्तित हो गया । मृगापुत्र दारक ने पीव व रुधिर रूप में परिवर्तित उस आहार का वमन कर दिया । वह बालक अपने ही द्वारा वमन किये हुए उस पीव व रुधिर को भी खा गया । मृगापुत्र दारक की ऐसी दशा को देखकर भगवान् गौतमस्वामी के मन में ये विकल्प उत्पन्न हुए- अहो ! यह बालक पूर्वजन्मों के दुश्चीर्ण व दुष्प्रतिकान्त अशुभ पापकर्मों के पापरूप फल को पा रहा है । नरक व नारकी तो मैंने नहीं देखे, परन्तु यह मृगापुत्र सचमुच नारकीय वेदनाओं का अनुभव करता हुआ प्रतीत हो रहा है । इन्हीं विचारों से आक्रान्त होते हुए भगवान् गौतम ने मृगादेवी से पूछ कर कि अब मैं जा रहा हूं. उसके घर से प्रस्थान किया ।