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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
के समान, कम्बलों में कृमिरागरक्त कम्बल के समान, संहननों में वज्रकृभषभनाराचसंहनन के समान, संस्थानो में चतुरस्रसंस्थान के समान, ध्यानों में शुक्लध्यान समान, ज्ञानों में केवलज्ञान समान, लेश्याओं में परमशुक्ललेश्या के समान, मुनियों में तीर्थंकर के समान, क्षेत्रों में महाविदेहक्षेत्र के समान, पर्वतों में गिरिराज सुमेरु की भाँति, वनों में नन्दनवन समान, वृक्षों में सुदर्शन जम्बू के समान, अश्वाधिपति, गजाधिपति और स्थाधिपति राजा के समान और रथिकों में महारथी के समान समस्त व्रतों में ब्रह्मचर्यव्रत सर्वश्रेष्ठ है ।
इस प्रकार एक ब्रह्मचर्य की आराधना करने पर अनेक गुण स्वतः अधीन हो जाते हैं। ब्रह्मचर्यव्रत के पालन करने पर सम्पूर्ण व्रत अखण्ड रूप से पालित हो जाते हैं, यथा-शील, तप, विनय और संयम, क्षमा, गुप्ति, मुक्ति । ब्रह्मचर्यव्रत के प्रभाव से इहलोक और परलोक सम्बन्धी यश और कीर्ति प्राप्त होती है । यह विश्वास का कारण है । अतएव स्थिरचित्त से तीन करण और तीन योग से विशुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए और वह भी जीवनपर्यत, इस प्रकार भगवान् महावीर ने ब्रह्मचर्यव्रत का कथन किया है । भगवान् का वह कथन इस प्रकार का है
[४०] यह ब्रह्मचर्यव्रत पांच महाव्रतरूप शोभन व्रतों का मूल है, शुद्ध आचार वाले मुनियों के द्वारा सम्यक् प्रकार से सेवन किया गया है, यह वैरभाव की निवृत्ति और उसका अन्त करने वाला है तथा समस्त समुद्रों में स्वयंभूरमण समुद्र के समान दुस्तर किन्तु तैरने का उपाय होने के कारण तीर्थस्वरूप है ।
[४१] तीर्थंकर भगवन्तों ने ब्रह्मचर्य व्रत के पालन करने के मार्ग भलीभाँति बतलाए हैं । यह नरकगति और तिर्यञ्चगति के मार्ग को रोकनेवाला है, सभी पवित्र अनुष्ठानों को सारयुक्त बनानेवाला तथा मुक्ति और वैमानिक देवगति के द्वार को खोलनेवाला है ।
[४२] देवेन्द्रों और नरेन्द्रों के द्वारा जो नमस्कृत हैं, उन महापुरुषों के लिए भी ब्रह्मचर्य पूजनीय है । यह जगत् के सब मंगलों का मार्ग है । यह दुर्द्धर्ष है, यह गुणों का अद्वितीय नायक है । मोक्ष मार्ग का द्वार उद्घाटक है ।
[४३] ब्रह्मचर्य महाव्रत का निर्दोष परिपालन करने से सुब्राह्मण, सुश्रमण, और सुसाधु कहा जाता है । जो शुद्ध ब्रह्मचर्य का आचरण करता है वही ऋषि है, वही मुनि है, वही संयत है और वही सच्चा भिक्षु है । ब्रह्मचर्य का अनुपालन करनेवाले पुरुष को रति, राग, द्वेष और मोह, निस्सार प्रमाददोष तथा शिथिलाचारी साधुओं का शील और घृतादि की मालिश करना, तेल लगाकर स्नान करना, बार-बार बगल, सिर हाथ, पैर और मुँह धोना, मर्दन करना, पैर आदि दबाना, परिमर्दन करना, विलेपन करना, चूर्णवास से शरीर को सुवासित करना, अगर आदि की धूप देना, शरीर को मण्डित करना, बाकुशिक कर्म करना-नखों, केशो एवं वस्त्रों को संवारना आदि, हँसी-ठट्ठा करना, विकारयुक्त भाषण करना, नाट्य, गीत, वाजिंत्र, नटों, नृत्यकारको, जल्लों और मल्ला का तमाशा देखना तथा इसी प्रकार की अन्य बातें जो श्रृंगार का आगार हैं और जिनसे तपश्चर्या, संयम एवं ब्रह्मचर्य का उपघात या घात होता है, ब्रह्मचर्य का आचरण करने वाले को सदैव के लिए त्याग देनी चाहिए ।
इन त्याज्य व्यवहारों के वर्जन के साथ आगे कहे जाने वाले व्यापारों से अन्तरात्मा को भावित-वासित करना चाहिए । स्नान नहीं करना, दन्तधावन नहीं करना, स्वेद (पसीना)