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ज्ञाताधर्मकथा-१/-19/३४
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अलंकार उतार डाले । तत्पश्चात् मेघकुमार की माता ने हंस के लक्षण वाले और मूदुल वस्त्र में आभूषण, माल्य और अलंकार ग्रहण किये । ग्रहण करके हार, जल की धारा, निगुंडी के पुष्प और टूटे हुए मुक्तावली-हार से समान अश्रु टपकाती हुई, रोती-रोती, आक्रन्दन करतीकरती और विलाप करती-करती इस प्रकार कहने लगी- 'हे लाल ! प्राप्त चास्त्रियोग में यतना करना, हे पुत्र ! अप्राप्त चारित्रयोग को प्राप्त करने का यत्ल करना, हे पुत्र ! पराक्रम करना। संयम-साधना में प्रमाद न करना, 'हमारे लिए भीय ही मार्ग हो' इस प्रकार कह कर मेघकुमार के माता-पिता ने श्रमण भगवान महावीर का वन्दन नमस्कार किया । वन्दन नमस्कार करके जिस दिशा से आये थे, उसी दिशा में लौट गये ।
[३५] मेघकुमार ने स्वयं ही पंचमुष्टि लोच किया । जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ आया । भगवान् महावीर को तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की । फिर वन्दननमस्कार किया और कहा-भगवन् ! यह संसार जरा और मरण से आदीप्त है, यह संसार प्रदीप्त है । हे भगवन् ! यह संसार आदीप्त-प्रदीप्त है । जैसे कोई गाथापति अपने घर में आग लग जाने पर, उस घर में जो अल्प भारवाली और बहुमूल्य वस्तु होती है उसे ग्रहण करके स्वयं एकान्त में चला जाता हैं । वह सोचता है कि 'अग्नि में जलने से बचाया हुआ यह पदार्थ मेरे लिए आगे-पीछे हित के लिए, सुख के लिए, क्षमा के लिए, कल्याण के लिए और भविष्य में उपयोग के लिए होगा । इसी प्रकार मेरा भी यह एक आत्मा रूपी भांड है, जो मुझे इष्ट है, कान्त है, प्रिय है, मनोज्ञ है और अतिशय मनोहर है । इस आत्मा को मैं निकाल लूंगाजरा-मरण की अग्नि में भस्म होने से बचा लूंगा, तो यह संसार का उच्छेद करनेवाला होगा । अतएव मैं चाहता हूं कि देवानुप्रिय स्वयं ही मुझे प्रव्रजित करें, स्वयं ही मुझे मुंडित करें, स्वयं ही प्रतिलेखन आदि सिखावें, स्वयं ही सूत्र और अर्थ प्रदान करके शिक्षा दें, स्वयं ही ज्ञानादिक आचार, गोचरी, विनय, वैनयिक, चरणसत्तरी, करणसत्तरी, संयमयात्रा और मात्रा आदि स्वरूप वाले धर्म का प्ररूपण करें । ..
तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने मेघकुमार को स्वयं ही प्रव्रज्या प्रदान की और स्वयं ही यावत् आचार-गोचर आदि धर्म की शिक्षा दी । हे देवानुप्रिय ! इस प्रकार-चलना इस प्रकार खड़ा होना, बैठना, शयन करना, निर्दोष आहार करना,भाषण करना। प्राण, भूत, जीव
और सत्त्व की रक्षा करके संयम का पालन करना चाहिए । इस विषय में तनिक भी प्रमाद नहीं करना चाहिए । तत्पश्चात् मेघकुमार ने श्रमण भगवान महावीर के निकट इस प्रकार का धर्म सम्बन्धी यह उपदेश सुनकर और हृदय में धारण करके सम्यक प्रकार से उसे अंगीकार किया । वह भगवान् की आज्ञा के अनुसार गमन करता, उसी प्रकार बैठता यावत् उठ-उठ कर प्राणों, भूतों, जीवों और सत्वों की यतना करके संय का आराधन करने लगा।
[३६] जिस दिन मेघकुमार ने मुंडित होकर गृहवास त्याग कर चारित्र अंगीकार किया, उसी दिन के सन्ध्याकाल में रात्निक क्रम में अर्थात् दीक्षापर्याय के अनुक्रम से, श्रमण निर्गन्थों के शय्या-संस्तारकों का विभाजन करते समय मेघकुमार का शय्या-संस्तारक द्वार के समीप हुआ । तत्पश्चात् श्रमण निर्ग्रन्थ अर्थात् अन्य मुनि रात्रि के पहले और पिछले समय में वाचना के लिए, पृच्छना के लिए, परावर्तन के लिए, धर्म के व्याख्यान का चिन्तन करने के लिए, उच्चार के लिए एवं प्रस्त्रवण के लिए प्रवेश करते थे और बाहर निकलते थे । उनमें से किसी