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________________ ज्ञाताधर्मकथा-१/-/9/२२ ६९ गंधहस्ती के स्कंध पर आरूढ़ होकर, कोरंट वृक्ष के फूलों की मालावाले छत्र को मस्तक पर धारण करके, चार चामरों से बिंजाते हुए धारिणी देवी आ अनुगमन किया । श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर बैठे हुए श्रेणिक राजा धारिणी देवी के पीछे-पीछे चले । धारिणी-देवी अश्व, हाथी, स्थ और योद्धाओं की चतुरंगी सेना से पखित थी । उसके चारों और महान् सुभटों का समूह घिरा हुआ था । इस प्रकार सम्पूर्ण समृद्धि के साथ,सम्पूर्ण द्युति के साथ, यावत् दुंदुभि के निर्घोष के साथ राजगृह नगर के श्रृंगाटक, त्रिक, चतुष्क और चत्वर आदि में होकर यावत् चतुर्मुख राजमार्ग में होकर निकली । नागरिक लोगोमं ने पुनः पुनः उसका अभिनन्दन किया । तत्पश्चात् वह जहाँ वैभारगिरि पर्वत था, उसी ओर आई । आकर वैभारगिरि के कटकतट में और तलहटी में, दम्पतियों के क्रीड़ास्थान आरामों में, पुष्प-फल से सम्पन्न उद्यानों में, सामान्य वृक्षों से युक्त काननों में नगर से दूरवर्ती वनों में, एक जाति के वृक्षों के समूह वाले वनखण्डों में, वृक्षों में, वृन्ताकी आदि के गुच्छाओं में, बांस की झाड़ी आदि गुल्मों में, आम्र आदि की लताओं नागवेल आदि की वल्लियों में, गुफाओं में, दरी, चुण्डी में, ह्रदों-तालाबों में, अल्प जल वाले कच्छों में, नदियों में, नदियों के संगमों में और अन्य जलाशयों में, अर्थात् इन सबके आसपास खड़ी होती हुई, वहाँ के दृश्यों को देखती हुई, स्नान करती हुई, पुष्पादिक को सूंघती हुई, फळ आदि का भक्षण करती हुई और दूसरों को बाँटती हुई, वैभारगिरि के समीप की भूमि में अपना दोहदपूर्ण करती हुई चारों और परिभ्रमम करने लगी । इस प्रकार धारिणी देवी ने दोहद को दूर किया, दोहद को पूर्ण किया और दोहद को सम्पन्न किया । तत्पश्चात् धारिणी देवी सेचनक नामक गंघहस्ती पर आरूढ हुई । श्रेणिक राजा श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर बैठकर उसके पीछे-पीछे चलने लगे । अश्व हस्ती आगि से घिरी हुई वह जहाँ राजगृह नगर हैं, वहाँ आती है । राजगृह नगर के बीचोंबीच होकर जहाँ अपना भवन हैं, वहाँ आती है । वहाँ आकर मनुष्य सम्बन्धी विपुल भोग भोगती हुई विचरती है । [२३] तत्पश्चात् वह अभयकुमार जहाँ पौषधशाला है, वहीं आता है । आकर पूर्व के मित्र देव का सत्कार-सम्मान करके उसे विदा करता है । तत्पश्चात् अभयकुमार द्वारा विदा दिया हुआ वह देव गर्जना से युक्त पंचरंगी मेघों से सुशोभित दिव्य वर्षा-लक्ष्मी का प्रतिसंहरण करता है, प्रतिसंहरण करके जिस दिशा से प्रकट हुआ था उसी दिशा में चला गया । [२४] तत्पश्चात् धारिणी देवी ने अपने उस अकाल दोहद के पूर्ण होने पर दोहद को सम्मानित किया । वह उस गर्भ की अनुकम्पा के लिए, गर्भ को बाधा न पहुँचे इस प्रकार यतना-सावधानीसे खड़ी होती, यतना से बैठती और यतना से शयन करती । आहार करती तो ऐसा आहार करती जो अधिक तीखा न हो, अधिक कटुक न हो, अधिक कसैला न हो, अधिक खट्टा न हो और अधिक मीठा भी न हो । देश और काल के अनुसार जो उस गर्भ के लिए हितकारक हो, मित हो, पथ्य हो । वह अति चिन्ता न करती, अति शोक न करती, अति दैन्य न करती, अति मोह न करती, अति भय न करती और अति त्रास न करती । अर्थात् चिन्ता, शोक, दैन्य, मोह, भय और त्रास से रहित होकर सब ऋतुओं में सुखप्रद भोजन, वस्त्र, गंध, माला और अलंकार आदि से सुखपूर्वक उस गर्भ को वहन करने लगी । [२५] तत्पश्चात् धारिणी देवी ने नौ मास परिपूर्ण होने पर और साढ़े सात रात्रि-दिवस बीत जाने पर, अर्धरात्रि के समय, अत्यन्त कोमल हाथ-पैर वाले यावत् परिपूर्ण इन्द्रियों से
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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