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________________ ज्ञाताधर्मकथा - १/-/१/१२ ५७ बार-बार हल्की-सी नींद ले रही थी, ऊँध रही थी, जब उसने एक महान्, सात हाथ ऊँचा, रजतकूट - चांदी के शिखर के सदृश श्वेत, सौम्य, सौम्याकृति, लीला करते हुए, जँभाई लेते हुए हाथी को आकाशतल से अपने मुख में प्रवेश करते देखा । देखकर वह जाग गई । तत्पश्चात् वह धारिणी देवी इस प्रकार के इस स्वरूप वाले, उदार प्रधान, कल्याणकारी, शिव, धन्य, मांगलि एवं सुशोभित महास्वप्न को देखकर जागी । उसे हर्ष और संतोष हुआ । चित्त में आनन्द हुआ । मन में प्रीति उत्पन्न हुई । परम प्रसन्नता हुई । हर्ष के वशीभूत होकर उसका हृदय विकसित हो गया । मेघ की धाराओं का आधात पाए कदम्ब के फूल के समान उसे रोमांच हो आया । उसने स्वप्न का विचार किया । शय्या से उठी और पादपीठ से नीचे उतरी। मानसिक त्वरा से शारीरिक चपलता से रहित, स्खलना से तथा विलम्ब - रहित राजहंस जैसी गति से जहाँ श्रेणिक राजा था, वहीं आई । श्रेणिक राजा को इष्ट, कान्त प्रिय, मनोज्ञ, मणाम उदार, कल्याण, शिव, धन्य, मंगलकारो, सश्रीक- हृदय को प्रिय लगनेवाली, आह्लाद उत्पन्न करनेवाली, परिमित अक्षरोंवाली, मधुर स्वरों से मीठी, रिभित-स्वरों की धोलनावाली, शब्द और अर्थ की गंभीरता वाली और गुण रूपी लक्ष्मी से युक्त वाणी बार-बार बोल कर श्रेणिक राजा को जगाती है । जगाकर श्रेणिक राजा की अनुमति पाकर विविध प्रकार के मणि, सुवर्ण और रत्नों की रचना से चित्र-विचित्र भद्रासन पर बैठती है । आश्वस्त होकर, विश्वस्त होकर, सुखद और श्रेष्ठ आसन पर बैठी हुई वह दोनों करतलों से ग्रहण की हुआ और मस्तक के चारों ओर धूमती हुई अंजीर को मस्तक पर धारण करके श्रेणिक राजा से इस प्रकार कहती है। देवानुप्रिय ! आज मैं उस पूर्ववर्णित शरीर- प्रमाण तकिया वाली शय्या पर सो रही थी, तब यावत् अपने मुख में प्रवेश करते हुए हाथी को स्वप्न में देखर कर जागी हूँ । हे देवानुप्रिय ! इस उदार यावत् स्वप्न का क्या फल -विशेष होगा ? - [१३] तत्पश्चात् श्रेणिक राजा धारिणी देवी से इस अर्थ को सुनकर तथा हृदय में धारण करके हर्षित हुआ, मेघ की धाराओं से आहत कदंबवृक्ष के सुगंधित पुष्प के समान उसका शरीर पुलकित हो उठा उसने स्वप्न का अवग्रहण किया । विशेष अर्थ के विचार रूप ईहा में प्रवेश किया । अपने स्वाभाविक मतिपूर्वक बुद्धिविज्ञान से उस स्वप्न के फल का निश्चय किया । निश्चय करके धारिणी देवी से हृदय में आह्लाद उत्पन्न करनेवाली मृदु, मधुर, रिभित, गंभीर और सश्रीक वाणी से बार-बार प्रशंसा करते हुए कहा । 'देवानुप्रिय ! तमने उदार - प्रधान स्वप्न देखा है, देवनुप्रिये ! तुमने कल्याणकारी स्वप्न देखा है ! तुमने शिव उपद्रव - विनाशक, धन्य-मंगलमय-सुखकाकीर और सश्रीक - स्वप्न देखा है । देवा ! आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याण और मंगल करनेवाला स्वप्न तुमने देखा है । देवानुप्रिये ! इस स्वप्न को देखने से तुम्हें अर्थ का लाभ होगा, तुम्हें पुत्र का लाभ होगा, तुम्हें राज्य का लाभ होगा, भोग का तथा सुख का लाभ होगा । निश्चय ही ! तुम पूर नव मास और साढ़े सात रात्र-दिन व्यतीत होने पर हमारे कुल की ध्वजा के समान, कुल के लिए दीपक के समान, कुल में पर्वत के समान, किसी से पराबूत न होनेवाला, कुल का भूषण, कुल का तिलक, कुल की कीर्ति बढ़ानेवाला, कुल की आजीविका बढ़ानेवाला, कुल को आनन्द प्रदान करानेवाला, कुल का यश बढ़ानेवाला, कुल का आधार, कुल में वृक्ष के समान आश्रयणीय और कुल की वृद्धि करनेवाला तथा सुकोमल हाथ-पैर वाला पुत्र ( यावत्) प्रसव करोगी ।' -
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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