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________________ ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१/५ से न बहुत दूर और न बहुत समीप - सुननी की इच्छा करते हुए सन्मुख दोनों हाथ जोड़कर विनयपूर्वक पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले भगवन् ! यदि श्रुतधर्म की आदि करने वाले स्वयं बोध को प्राप्त, पुरुषों में उत्तम, पुरुषों में सिंह समान, पुरुषों में श्रेष्ठ कमल समान, पुरुषों में गन्धहस्ती समान, लोक में उत्तम, लोक के नाथ, लोक का हित करनेवाले, लोक में प्रदीप समान, लोक में उद्योत करनेवाले, अभय देनेवाले, शरणदाता श्रद्धारूप नेत्रदाता, धर्ममार्गदाता, बोधिदाता, धर्म दाता, धर्मउपदेशक, धर्मनायक, धर्मसारथी, चारों गतियों का अन्त करनेवाले धर्म चक्रवर्ती कहीं भी प्रतिहत न होनेवाले केवलज्ञान-दर्शन के धारक, रागादि को जीतनेवाले और अन्य प्राणियों को जितानेवाले, संसार-सागर से स्वयं तिरे हुए और दूसरों को तारनेवाले, स्वयं कर्मबन्धन से मुक्त और दूसरों को मुक्त करनेवाले, स्वयं बोध-प्राप्त और दूसरों को बोध देनेवाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिव अचल-अरुज-अनन्त, अक्षय, अव्याबाध और अपुनरावृत्ति-सिद्धिगति नामक शाश्वत स्थान को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने छठे अंग ज्ञाताधर्मकथा का क्या अर्थ कहा है ? 'हे जम्बू !' इस प्रकार सम्बोधन करके आर्य सुधर्मा स्थविर ने आर्य जम्बू नामक अनगार से इस प्रकार कहा-जम्बू ! यावत् सिद्धिस्थान को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने छठे अङ्ग के दो श्रुतस्कन्ध प्ररूपण किये हैं । वे इस प्रकार हैं -ज्ञात और धर्मकथा । जम्बूस्वामी पुनः प्रश्न करते हैं - भगवन् ! यदि यावत् सिद्धिस्थान को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने छठे अंदकेदो श्रुतस्कन्ध प्ररूपित किये हैं-ज्ञान और धर्मकथा, तो भगवन् ! ज्ञात नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध के यावत् सिद्धिस्थान को प्राप्त श्रमण भगवान् ने कितने अध्ययन कहे हैं ? हे जम्बू! यावत् ज्ञात नामक श्रुतस्कन्ध के उन्नीस अध्ययन कहे हैं । वे इस प्रकार हैं [६] उत्क्षिप्तज्ञात, संघाट, अंडक, कूर्म, शैलक, रोहिणी, मल्ली, माकंदी, चन्द्र, [७] दावद्रववृक्ष, तुम्ब, उदक, मंडूक, तेतलीपुत्र, नन्दीफल, अमरकंका, आकीर्ण, सुषमा, [८] पुण्डरीक-यह उन्नोस ज्ञात अध्ययनों के नाम हैं । [९] भगवन् ! यदि श्रमण यावत् सिद्धिस्थान को प्राप्त महावीर ने ज्ञात-श्रुतस्कन्ध के उन्नीस अध्ययन कहे हैं, तो भगवन् ! प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में, इसी जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में, दक्षिणार्ध भरत में राजगृह नामक नगर था । राजगृह के ईशान कोण में गुणशील नामक उद्यान था । उस राजगृह नगर में श्रेणिक नामक राजा था । वह मलाहिमवंत पर्वत के समान था, उस श्रेणिक राजा की नन्दा नामक देवी थी । वह सुकुमार हाथों-पैरोंवाली थी, [१०] श्रेणिक राजा का पुत्र और नन्दा देवी का आत्मज अभय नामक कुमार था । वह शुभ लक्षणों से युक्त तथा स्वरूप से परिपूर्ण पांचों इंद्रियों से युक्त शरीवाला था । यावत् साम, दंड, भेद एवं उपप्रदान नीति में निष्णात तथा व्यापार नीति की विधि का ज्ञाता था। ईहा, अपोह. मार्गणा, गवेषणा तथा अर्थशास्त्र में कुशल था । ओत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी तथा पारिणामिकी, इन चार प्रकार की बुद्धियों से युक्त था । वह श्रेणिक राजा के लिए बहुतसे कार्यों में, कौटुम्बिक कार्यों में, मंत्रणा में, गुह्य कार्यों में, रहस्यमय मामलों में, निश्चय करने में,एक बार और बार-बार पूछने योग्य था, वह सब के लिए मेढ़ी के समान था, पृथ्वी के समान आधार था, रस्सी के समान आलम्बन रूप था, प्रमाणभूत था, आधारभूत था, चक्षुभूत
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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