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उपासकदशा-१/९
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चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए । इहलोक-आशंसाप्रयोग, परलोक-आशंसाप्रयोग, जीवित-आशंसाप्रयोग, मरण-आशंसाप्रयोग तथा काम-भोग-आशंसाप्रयोग |
[१०] फिर आनन्द गाथापति ने श्रमण भगवान् महावीर के पास पांच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रतरूप बारह प्रकार का श्रावक-धर्म स्वीकार किया । भगवान् महावीर को वन्दनानमस्कार कर वह भगवान् से यों बोला-भगवन् ! आज से अन्य यूथिक-उनके देव, उन द्वारा परिगृहीत-चैत्य-उन्हें वन्दना करना, नमस्कार करना, उनके पहले बोले बिना उनसे आलापसंलाप करना, उन्हें अशन-पान-खादिम–स्वादिम-प्रदान करना, अनुप्रदान करना मेरे लिए कल्पनीय नहीं है । राजा, गण-बल-देव व माता-पिता आदि गुरुजन का आदेश या आग्रह तथा अपनी आजीविका के संकटग्रस्त होने की स्थिति मेरे लिए इसमें अपवाद हैं ।
श्रमणों, निर्ग्रन्थों को प्रासुक-अचित्त, एषणीय-अशन, पान, खाद्य तथा स्वाद्य आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद-प्रोज्छन-पाट, बाजोट, ठहरने का स्थान, संस्तारक, भेषज-दवा देना मुझे कल्पता है । आनन्द ने यों अभिग्रह किया । वैसा कर भगवान् से प्रश्न पूछे । प्रश्न पूछकर उनका अर्थ प्राप्त किया । श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार वंदना की । भगवान् के पास से दूतीपलाश नामक चैत्य से खाना हुआ । जहां वाणिज्यग्राम नगर था, जहां अपना घर था, वहां आया । अपनी पत्नी शिवनन्दा को यों बोला-देवानुप्रिये ! मैंने श्रमण भगवान् के पास से धर्म सुना है । वह धर्म मेरे लिए इष्ट, अत्यन्त इष्ट और रुचिकर है । देवानुप्रिये ! तुम भगवान् महावीर के पास जाओ, उन्हें वंदना करो, पर्युपासना करो तथा पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत-रूप बारह प्रकार का गृहस्थ-धर्म स्वीकार करो ।
[११] श्रमणोपासक आनन्द ने जब अपनी पत्नी शिवनन्दा से ऐसा कहा तो उसने हृष्ट-तुष्ट-अत्यन्त प्रसन्न होते हुए हाथ जोड़े, 'स्वामी ऐसा है । तब श्रमणोपासक आनन्द ने अपने सेवकों को बुलाया और कहा-तेज चलने वाले, यावत् श्रेष्ठ स्थ शीघ्र ही उपस्थित करो, उपस्थित करके मेरी यह आज्ञा वापिस करो । तब शिवनन्दा वह धार्मिक उत्तम रथ पर सवार हुई । भगवान् महावीर विराजित थे वहा जाकर तीन बार आदक्षिणप्रदक्षिणा की, यावत् पर्युपासना करने लगी । श्रमण भगवान् महावीर ने शिवनन्दा को तथा उस उपस्थित परिषद् को धर्म-देशना दी । तब शिवनन्दा श्रमण भगवान महावीर से धर्म सुनकर तथा उस हृदय में धारण करके अत्यन्त प्रसन्न हुई । उसने गृहि-धर्म-स्वीकार किया, वह उसी धार्मिक उत्तम रथ पर सवार होकर जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा की ओर चली गई ।
[१२] गौतम ने भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया और पूछा-भन्ते ! क्या श्रमणोपासक आनन्द देवानुप्रिय के आपके पास मुंडित एवं पखिजित होने में समर्थ है ? गौतम ! ऐसा संभव नहीं है । श्रमणोपासक आनन्द बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक-पर्याय-का पालन करेगा वह सौधर्म-कल्प में सौधर्मनामक देवलोक में अरुणाभ नामक विमान में देव के रूप में उत्पन्न होगा । वहां अनेक देवों की आयु-स्थिति चार पल्योपम की होती है । श्रमणोपासक आनन्द की भी आयु-स्थिति चार पल्योपम की होगी । तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर वाणिज्यग्राम नगर के दूतीपलाश चैत्य से प्रस्थान कर एक दिन किसी समय अन्य जनपदों में विहार कर गए ।
[१३] तब आनंद श्रमणोपासक हो गया । जीव-अजीवका ज्ञाता हो गया यावत् श्रमणनिर्ग्रन्थों का अशन आदि से सत्कार करता हुआ विचरण करने लगा । उसकी भार्या