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________________ ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१६/१७९ २१५ से युक्त हो गये-सुखपूर्वक निवास करने लगे । [१८०] तत्पश्चात् एक बार किसी समय द्रौपदी देवी गर्भवती हुई । फिर द्रौपदी देवी ने नौ मास यावत् सम्पूर्ण होने पर सुन्दर रूप वाले और सुकुमार तथा हाथी के तालु के समान कोमल बालक को जन्म दिया । बारह दिन व्यतीत होने पर बालक के माता-पिता को ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि क्योंकि हमारा यह बालक पाँच पाण्डवों का पुत्र हैं और द्रौपदी देवी का आत्मज है, अतः इस बालक का नाम 'पाण्डुसेन' होना चाहिए । तत्पश्चात् उस बालक के माता-पिता ने उसका ‘पाण्डुसेन' नाम रखा । उस काल और समय में धर्मघोष स्थविर पधारे । धर्मश्रवण करने और उन्हें वन्दना के लिए परिषद् निकली । पाण्डव भी निकले । धर्म श्रवण करके उन्होंने स्थविर से कहा-'देवानुप्रिय ! हमें संसार से विरक्ति हुई है, अतएव हम दीक्षित होना चाहते हैं; केवल द्रौपदी देवी से अनुमति ले लें और पाण्डुसेन कुमार को राज्य पर स्थापित कर दें । तत्पश्चात् देवानुप्रिय के निकट मुण्डित होकर यावत् प्रव्रज्या ग्रहण करेंगे। तब स्थविर धर्मघोष ने कहा-'देवानुप्रियो ! जैसे तुम्हें सुख उपजे, वैसा करो ।' तत्पश्चात् पाँचों पाण्डव अपने भवन में आये । उन्होंने द्रौपदी देवी को बुलाया और उससे कहादेवानुप्रिये ! हमने स्थविर मुनि से धर्म श्रवण किया है, यावत् हम प्रव्रज्या ग्रहण कर रहे हैं। देवानुप्रिये ! तुम्हें क्या करना है ? तब द्रौपदी देवी ने पांचों पाण्डवों से कहा-'देवानुप्रियो ! यदि आप संसार के भय से उद्विग्न होकर प्रव्रजित होते हो तो मेरा दूसरा कौन अवलम्बन यावत् मैं भी संसार के भय से उद्विग्न होकर देवानुप्रियों के साथ दीक्षा अंगाकार करूँगी ।' तत्पश्चात् पांचों पाण्डवों ने पाण्डुसेन का राज्याभिषेक किया । यावत् पाण्डुसेन राजा हो गया, यावत् राज्य का पालन करने लगा । तब किसी समय पांचों पाण्डवों ने और द्रौपदी ने पाण्डुसेन राजा से दीक्षा की अनुमति मांगी । तब पाण्डुसेन राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे कहा-'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही दीक्षा-महोत्सव की तैयारी करो और हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य शिविकाएँ तैयार करो । शेष वृत्तान्त पूर्ववत्, यावत् वे शिबिकाओं पर आरूढ़ होकर चले और स्थविर मुनि के स्थान के पास पहुँच कर शिबिकाओं से नीचे उतरे। स्थविर मुनि के निकट पहुँचे । वहाँ जाकर स्थविर से निवेदन किया-भगवन् ! यह संसार जल रहा है आदि, यावत् पांचों पाण्डव श्रमण बन गये । चौदह पूर्वो का अध्ययन किया । बहुत वर्षों तक बेला, तेला, चोला, पंचोला तथा अर्धमास-खमण, मासखमण आदि तपस्या द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । [१८१] द्रौपदी देवी भी शिविका से उतरी, यावत् दीक्षित हुई । वह सुव्रता आर्या को शिष्या के रूप में सौंप दी गयी । उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । बहुत वर्षों तक वह षष्ठभक्त अष्टभक्त, दशमभक्त और द्वादशभक्त आदि तप करती हुई विचरने लगी । [१८२] तत्पश्चात् किसी समय स्थविर भगवंत पाण्डुमथुरा नगरी के सहस्त्राम्रवन नामक उद्यान से निकले । निकल कर बाहर जनपदों में विचरण करने लगे । उस काल और उस समय में अरिहन्त अरिष्टनेमि जहाँ सुराष्ट्र जनपद था, वहाँ पधारे । सुराष्ट्र जनपद में संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । उस समय बहुत जन परस्पर इस प्रकार कहने लगे-'हे देवानुप्रियो ! तीर्थंकर अरिष्टनेमि सुराष्ट्र जनपद में यावत् विचर रहे हैं ।' तब युधिष्ठिर प्रभृति पांचों अनगारों ने बहुत जनों से यह वृत्तान्त सुन कर एक दूसरे को बुलाया
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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