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________________ १९० आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद और निर्ग्रन्थियों को बुलाकर उनसे कहा-'हे आर्यो ! निश्चय ही मेरा अन्तेवासी धर्मरुचि नामक अनगार स्वभाव से भद्र यावत् वितीन था । वह मासखमण की तपस्या कर रहा था । यावत् वह नागश्री ब्राह्मणो के घर पारणक-भिक्षा के लिये गया । तब नागश्री ब्राह्मणी ने उसके पात्र में सब-का सब कटुक, विष-सदृश तुंबे का शाक उंडेल दिया । तब धर्मरुचि अनगार अपने लिए पर्याप्त आहार जानकर यावत् काल की आकांक्षा न करते हुए विचरने लगे | धर्मरुचि अनगार बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय पाल कर, आलोचना-प्रतिक्रमण करके समाधि में लीन होकर काल-मास में काल करके, ऊपर सौधर्म आदि देवलोकों को लांघ कर, यावत्, सर्वार्थसिद्ध नामक महाविमान में देवरूप से उत्पन्न हए हैं। वहाँ जघन्य-उत्कृष्ट भेद से रहित एक ही समान सब देवों की तेतीस सागरोपम की स्थिति कही गई है । धर्मरुचि देव की भी तेतीस सागरोपम की स्थिति हुई । वह उस सर्वार्थसिद्ध देवलोक से आयु, स्थिति और भव का क्षय होने पर च्युत होकर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्धि प्राप्त करेगा। [१६०] 'तो हे आर्यो ! उस अधन्य अपुण्य, यावत् निंबोली के समान कटुक नागश्री ब्राह्मणी को धिक्कार है, जिसने तथारूप साधु धर्मरुचि अनगार को मासखमण के पारणक में यावत् तेल से व्याप्त कटुक, विषाक्त तुंबे का शाक देकर असमय में ही मार डाला ।' तत्पश्चात् उन निर्ग्रन्थ श्रमणों ने धर्मघोष स्थविर के पास से यह वृत्तान्त सुनकर औरसमझ कर चम्पानगरी के श्रृंगाटक, त्रिक, चौक, चत्वर, चतुर्मुख राजमार्ग, गली आदि मार्गों में जाकर यावत् बहुत लोगों से इस प्रकार कहा-'धिक्कार है उय यावत् निंबोली के समान कटुक नागश्री ब्राह्मणी को; जिसने उस प्रकार के साधु और साधु रूप धारी मासखमण का तप करनेवाले धर्मरुचि नामक अनगार को शरद् सम्बन्धी यावत् विष सदृश कटुक शाकदेकर मार डाला ।' तब उस श्रमणों से इस वृत्तान्त को सुन कर और समझ कर बहुत-से लोग आपस में इस प्रकार कहने लगे और बातचीत करने लगे- ‘धिक्कार है उस नागश्री ब्राह्मणी को, जिसने यावत् मुनि को मार डाला ।' तत्पश्चात् वे सोम, सोमदत्त और सोमभूति ब्राह्मण, चम्पानगरी में बहुत-से लोगों से यब वृत्तान्त सुनकर और समझकर, कुपित हए यावत और मिसमिसाने लगे । वे वहीं जा पहँचे जहाँ नागश्री थी । उन्होंने वहाँ जाकर नागश्री से इस प्रकार कहा-'अरी नागश्री ! अप्रार्थित की प्रार्थना करनेवाली ! दुष्ट और अशुभ लक्षणों वाली ! निकृष्ट कृष्णा चतुर्दशी में जन्मी हुई ! अधन्य, अपुण्य, भाग्यहीने ! अभागिनी ! अतीव दुर्भागिनी ! निबोली के समान कटुक ! तुझे धिक्कार है; जिसने तथारूप साधु और साधु रूप धारी को मासखमण के पारणक में शरद् सम्बन्धी यावत विषैला शाक बहरा कर मार डाला !' इस प्रकार कर कर उन ब्राह्मणों ने ऊँचेनीचे आक्रोश वचन कह कर आक्रोश किया, ऊँचे-नीचे उद्धंसता वचन कह कर उद्धंसता की, ऊँचे-नीचे भर्त्सना क्चन कहकर भर्त्सना की तथा ऊँचे-नीचे निश्छोटन क्यन कह कर निश्छोटना की, 'हे पापिनी तुझे पाप का फल भुगतना पड़ेगा' इत्यादि वचनों से तर्जना की और थप्पड़ आदि मार-मार कर ताड़ना की । तर्जना और ताड़ना करके उसे घर से निकाल दिया । । तत्पश्चात् वह नागश्री अपने घर से निकली हुई चम्पानगरी में श्रृंगाटकों में,त्रिक में, चतुष्क में, चत्वसें तथा चतुर्मुख में, बहुत जनों द्वारा अवहेलना की पात्र होती हुई, कुत्सम की जाती हुई, निन्दा और गर्दा की जाती हुई, उंगली दिखा-दिखा कर तर्जना की जाती हुई, डंडों
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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