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ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१४/१५३
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जिससे महान्-महान् राज्याभिषेक से हम उसका अभिषेक करें ।'
तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने उन ईश्वर आदि के इस कथन को अंगीकार किया । कनकध्वज कुमार को स्नान कराया और विभूषित किया । फिर उसे उन ईश्वर आदि के पास लाया । लाकर कहा-'देवानुप्रियो ! यह कनकरथ राजा का पुत्र और पद्मावती देवी का आत्मज कनकध्वज कुमार अभिषेक के योग्य है और राजलक्षणों से सम्पन्न है । मैंने कनकरथ राजा से छिपा कर इसका संवर्धन किया है । तुम लोग महान्-महान् राज्याभिषेक से इसका अभिषेक करो ।' इस प्रकार कहकर उसने कुमार के जन्म का और पालन-पोषण आदि का समग्र वृत्तान्त उन्हें कह सुनाया । तत्पश्चात् उन ईश्वर आदि ने कनकध्वज कुमार का महान्-महान् राज्याभिषेक किया । अब कनकध्वज कुमार राजा हो गया, महाहिमवान् और मलय पर्वत के समान इत्यादि यावत् वह राज्य का पालन करता हुआ विचरने लगा । उस समय पद्मावती देवी ने कनकध्वज राजा को बुलाया और बुलाकर कहा-पुत्र ! तुम्हारा यह राज्य यावत् अन्तःपुर तुम्हें तेतलिपुत्र की कृपा से प्राप्त हुए हैं । यहाँ तक कि स्वयं तू भी तेतलिपुत्र के ही प्रभाव से राजा बना है । अतएव तू तेतलिपुत्र अमात्य का आदर करना, उन्हें अपना हितैषी जानना, उनका सत्कार करना, सम्मान करना, उन्हें आते देख कर खड़े होना, उनकी उपासना करना उनके जाने पर पीछे-पीछे जाना, बोलने पर वचनों की प्रशंसा करना, उन्हें आधे आसन पर बिठाना और उनके भोद की वृद्धि करना । तत्पश्चात् कनकध्वज ने पद्मावती देवी के कथन को अंगीकार किया। यावत् वह पद्मावती के आदेशानुसार तेतलिपुत्र का सत्कार-सम्मान करने लगा । उसने उसके भोग की वृद्धि कर दी।
[१५४] उधर पोट्टिल देव ने तेतलिपुत्र को बार-बार केवलि-प्ररूपित धर्म का प्रतिबोध दिया परन्तु तेतलिपुत्र को प्रतिबोध हुआ ही नहीं । तब पोट्टिल देव को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ-'कनकध्वज राजा तेतलिपुत्र का आदर करता है, यावत् उसका भोग बढ़ा दिया है, इस कारण तेतलिपुत्र बार-बार प्रतिबोध देने पर भी धर्म में प्रतिबुद्ध नहीं हैता । अतएव यह उचित होगा कि कनकध्वज को तेतलिपुत्र से विरुद्ध कर दिया जाय ।' देव ने ऐसा विचार किया और कनकध्वज को तेतलिपुत्र से विरुद्ध कर दिया । तदनन्तर तेतलिपुत्र दूसरे दिन स्नान करके, यावत् श्रेष्ठ अश्व की पीठ पर सवार होकर और बहुत-से पुरुषों से परिवृत होकर
अपने घर से निकला | जहाँ कनकध्वज राजा था, उसी ओर खाना हुआ। तत्पश्चात् तेतलिपुत्र अमात्य को जो-जो बहुत-से राजा, ईश्वर, तलवर, आदि देखते, वे इसी तरह उसका आदर करते, उसे हितकारक जानते और खड़े होते । हाथ जोड़ते और इष्ट, कान्त, यावत् वाणी से बोलते वे सब उसके आगे, पीछे और अगल-बगल में अनुसरण करके चलते थे ।
वह तेतलिपुत्र जहाँ कनकध्वज राजा था, वहाँ आया । कनकध्वज ने तेतलिपुत्र को आते देखा, मगर देख कर उसका आदर नहीं किया, उसे हितैषी नहीं जाना, खड़ा नहीं हुआ, बल्कि पराङ्मुख बैठा रहा । तब तेतलिपुत्र ने कनकध्वज राजा को हाथ जोड़े । तब भी वह उसका आदर नहीं करता हुआ विमुख होकर बैठा ही रहा । तब तेतलिपुत्र कनकध्वज को अपने से विपरीत हुआ जानकर भयभीत हो गया । वह बोला-'कनकध्वज राजा मुझसे रुष्ट हो गया है, मुझ पर हीन हो गया है, मेरा बुरा सोचा है । सो न मालूम यह मुझे किस बुरी मौत से मारेगा । इस प्रकार विचार करके वह डर गया, त्रास को प्राप्त हुआ, घबराया और