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ज्ञाताधर्मकथा - १/-/१२/१४४
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के समीप लाए । तब जितशत्रु राजा ने उस उदकरत्न को हथेली में लेकर आस्वादन किया । उसे आस्वादन करने योग्य यावत् सब इन्द्रियों को और गात्र को आह्लादकारी जानकर सुबुद्धि अमात्य को बुलाया । बुलाकर इस प्रकार कहा - 'सुबुद्धि ! तुमने ये सत्, तथ्य, अवितथ तथा सद्भूत भाव कहाँ से जाने ?' तब सुबुद्धि ने जितशत्रु से कहा - 'स्वामिन् ! मैंने यह सत् यावत् सद्भूत भाव जिन भगवान् के वचन से जाने हैं ।'
तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि से कहा- 'देवानुप्रिय ! तो मैं तुमसे जिनवचन सुनना चाहता हूँ ।' तब सुबुद्धि मंत्री ने जितशत्रु राजा को केवली - भाषित चातुर्याम रूप अद्भुत धर्म कहा । जिस प्रकार जीव कर्म-बंध करते हैं, यावत् पाँच अणुव्रत हैं, इत्यादि धर्म का कथन किया । तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य से धर्म सुन कर और मन में धारण करके, हर्षित और संतुष्ट होकर सुबुद्धि अमात्य से कहा- 'देवानुप्रिय ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ । जैसा तुम कहते हो वह वैसा ही है । सौ मैं तुमसे पाँच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों को यावत् ग्रहण करके विचरने की अभिलाषा करता हूँ ।' तब सुबुद्धि ने कहा' जैसे सुख उपजे वैसा करो, प्रतिबंध मत करो ।'
जितशत्रु राजा सुबुद्धि अमात्य से पांच अणुव्रत वाला यावत् बारह प्रकार का श्रावकधर्म अंगीकार किया । जितशत्रु श्रावक हो गया, जीव- अजीव का ज्ञाता हो गया यावत् दान करता हुआ रहने लगा। उस काल और उस समय में जहाँ चम्पा नगरी और पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ स्थविर मुनि पधारे । जितशत्रु राजा और सुबुद्धि उनको वन्दना करने के लिए निकले । सुबुद्धि ने धर्मोपदेश सुन कर (निवेदन किया- ) मैं जितशत्रु राजा से पूछ लूँ- उनकी आज्ञा ले लूँ और फिर दीक्षा अंगीकार करूँगा । 'देवानुप्रिय ! जैसे सुख उपजे वैसा करो । तत्पश्चात् सुबुद्धि अमात्य जितशत्रु राजा के पास गया और बोला- 'स्वामिन् ! मैंने स्थविर धर्मोपदेश श्रवण किया है और उस धर्म को मैंने पुनः पुनः इच्छा की है । इस कारण हे स्वामिन् ! मैं संसार के भय से उद्विग्न हुआ हूँ तथा जरा-मरण से भयभीत हुआ हूं । अतः आपकी आज्ञा पाकर स्थविरों के निकट प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूँ ।'
तब जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य से इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय ! अभी कुछ वर्षों तक यावत् भोग भोगते हुए ठहरों, उसके अनन्तर हम दोनों साथ-साथ स्थविर मुनियों के निकट मुंडित होकर प्रव्रज्या अंगीकार करेंगे । तब सुबुद्धि अमात्य ने राजा जितशत्रु के इस अर्थ को स्वीकार कर लिया । तत्पश्चात् सुबुद्धि प्रधान के सात जितशत्रु राजा को मनुष्य सम्बन्धी कामभोग भोगते हुए बारह वर्ष व्यतीत हो गये । तत्पश्चात् उस काल और उस समय में स्थविर मुनि का आगमन हुआ । तब जितशत्रु ने धर्मोपदेश सुन कर प्रतिबोध पाया, किन्तु उसने कहा- 'देवानुप्रिय ! मैं सुबुद्धि अमात्य को दीक्षा के लिए आमंत्रित करता हूँ और ज्येष्ठ पुत्र को राजसिंहासन पर स्थापित करता हूँ । तदनन्तर आपके निकट दीक्षा अंगीकार करूँगा ।' तब स्थविर मुनि ने कहा- 'देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख उपजे वही करो ।' तब जितशत्रु राजा अपने घर आया । आकर सुबुद्धि को बुलवाया और कहा- मैंने स्थविर भगवान् से धर्मोपदेश श्रवण किया है यावत् मैं प्रव्रज्या ग्रहण करने की इच्छा करता हूँ । तुम क्या करोगे - तुम्हारी क्या इच्छा हैं ? तब सुबुद्धि ने जितशत्रु से कहा- 'यावत् आपके सिवाय मेरा दूसरा कौन आधार है ? यावत् मैं भी संसार भय से उद्विग्न हूँ, मैं भी प्रव्रज्या अंगीकार करूँगा ।'