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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
गले हुए, कीड़ों से व्याप्त और जानवरों के खाये हुए किसी मृत कलेवर के समान दुर्गन्ध वाला था । कृमियों के समूह से परिपूर्ण था । जीवों से भरा हआ था । अशुचि, विकृत और बीभत्स-डरावना दिखाई देता था । क्या वह (वस्ततः) ऐसे स्वरूप वाला था ? नहीं. यह अर्थ समर्थ नहीं है । वह जल इससे भी अधिक अनिष्ट यावत् गन्ध आदि वाला था ।
[१४४] वह जितशत्रु राजा एक बार-किसी समय स्नान करके, बलिकर्म करके, यावत् अल्प किन्तु बहुमूल्य आभरणों से शरीर को अलंकृत करके, अनेक राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि के साथ भोजन के समयपर सुखद आसन पर बैठ कर, विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन जीम रहा था । यावत जीमने के अनन्तर, हाथ-मुँह धोकर, परम शुचि होकर उस विपुल अशन, पान आदि भोजन के विषय में वह विस्मय को प्राप्त हुआ । अतएव उन बहुत-से ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि से कहने लगा-'अहे देवानुप्रियो ! यह मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम उत्तम वर्ण से यावत् उत्तम स्पर्श से युक्त है, यह आस्वादन करने योग्य है, विशेष रूप से आस्वादन करने योग्य है । पुष्टिकारक है, बल को दीप्त करनेवाला है, दर्प उत्पन्न करनेवाला हैं, काम-मद का जनक है और बलवर्धक तथा समस्त इन्द्रियों को
और गात्र को विशिष्च आह्लादक उत्पन्न करनेवाला है ।' तत्पश्चात् बहुत-से ईश्वर यावत् सार्थवाह प्रभृति जितशत्रु से कहने लगे-'स्वामिन् ! आप जो कहते हैं, बात वैसी ही है । अहा, यह मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम उत्तम वर्ण से युक्त हैं, यावत् विशिष्ट आह्लादजनक हैं ।'
तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य से कहा-'अहो सुबुद्धि ! यह मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम उत्तम वर्णादि से युक्त और यावत् समस्त इन्द्रियों को एवं गात्र को विशिष्ट आह्लादजनक है ।' तब सुबुद्धि अमात्य ने जितशत्रु के इस अर्थ का आदर नहीं किया । समर्थन नहीं किया, वह चुप रहा । जितशत्रु राजा के द्वारा दूसरी बार और तीसरी बार भी इसी प्रकार कहने पर सुबुद्धि अमात्य ने जितशत्रु राजा से कहा- मैं इस मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम मैं तनिक भी विस्मित नहीं हूँ । हे स्वामिन् ! सुरभि शब्द वाले पुद्गल दुरभि शब्द के रूप में परिणत हो जाते हैं और दुरभि शब्द वाले पुद्गल भी सुरभि शब्द के रूप में परिणत हो जाते हैं । उत्तम रूप वाले पुद्गल खराब रूप में और खराब रूप वाले पुद्गल उत्तम रूप में परिणत हो जाते हैं । सुरभि गन्धवाले पुद्गल दुरभिगन्ध में और दुरभिगन्ध वाले पुद्गल भी सुरभिगन्ध में परिणत हो जाते हैं । सुन्दर रस वाले पुद्गल खराब रस में और खराब रस वाले पुद्गल सुन्दर रस वाले पुद्गल में परिणत हो जाते हैं । शुभ स्पर्शवाले पुद्गल अशुभ स्पर्शवाले और अशुभ स्पर्शवाले पुद्गल शुभ स्पर्श वाले बन जाते हैं । हे स्वामिन् ! सब पुद्गलों में प्रयोग और विस्त्रसा परिणमन होता ही रहता हैं । उस समय जितशत्रु ने ऐसा कहनेवाले सुबुद्धि अमात्य के इस कथम का आदर नहीं किया, अनुमोदन नहीं किया और वह चुपचाप रहा ।
एक बार किसी समय जितशत्रु स्नान करके, उत्तम अश्व की पीठ पर सवार होकर, बहुत-से भटों-सुभटों के साथ, घुड़सवारी के लिए निकला और उसी खाई के पानी के पास पहुँचा । तब जितशत्रु राजा ने खाई के पानी की अशुभ गन्ध से घबराकर अपने उत्तरीय वस्त्र से मुँह ढंक लिया । वह एक तरफ चला गया और साथी राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह वगैरह