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________________ १६० आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद. महान् जनों के योग्य पुष्प-पूजा की । वे घुटने और पैर नमा कर यक्ष की सेवा करते हुए, नमस्कार करते हुए उपासना करने लगे । जिसका समय समीप आया हैं और साक्षात् प्राप्त हुआ है ऐसे शैलक यक्ष ने कहा-'किसे तारूँ, किसे पालूँ ?' तब माकन्दीपुत्रों ने खड़े होकर और हाथ जोड़कर कहा-'हमें तारिए, हमें पालिए ।' तब शैलक यक्ष ने माकन्दीपुत्रों से कहा'देवानुप्रियों ! तुम मेरे साथ लवणसमुद्र के बीचोंबीच गमन करोगे, तब वह पापिनी, चण्डा रुद्रा और साहसिका रत्नद्वीप की देवी तुम्हें कठोर, कोमल, अनुकूल, प्रतिकूल, श्रृंगारमय और मोहजनक उपसगों से उपसर्ग करेगी । हे देवानप्रियों! अगर तुम रत्नद्वीप की देवी के उस अर्थ का आदर करोगे, उसे अंगीकार करोगे या अपेक्षा करोगे, तो मैं तुम्हें अपनी पीठ से नीचे गिरा दूंगा । और यदि तुम रत्नद्वीप की देवता के उस अर्थ का आदर न करोगे, अंगीकार न करोगे और अपेक्षा न करोगे तो मैं अपने हाथ से, रत्नद्वीप की देवों से तुम्हारा निस्तार कर दूंगा।' तब माकन्दीपुत्रों ने शैलक यक्षसे कहा-'देवानुप्रिय ! आप जो कहेंगे, हम उसके उपपात, वचन-आदेश और निर्देश में रहेंगे । तत्पश्चात शैलक यक्ष उत्तर-पूर्व दिशा में गया। वहाँ जाकर उसने वैक्रिय समुद्घात करके संख्यात योजन का दंड किया । दूसरी बार और तीसरी बार भी वैक्रिय समुद्घात से विक्रियाकी, समुद्घात करके एक बड़े अश्व के रूप की विक्रिया की और फिर माकन्दीपुत्रों से इस प्रकार कहा-'हे माकन्दीपुत्रों ! देवानुप्रियों ! मेरी पीठ पर चढ़ जाओ ।' तब माकन्दीपुत्रों ने हर्षित और सन्तुष्ट होकर शैलक यक्ष को प्रणान करके वे शैलक की पीठ पर आरूढ़ हो गये । तत्पश्चात् अश्वरूपधारी शैलक यक्ष माकन्दीपुत्रों को पीठ पर आरूढ़ हुआ जान कर सात-आठ ताड़ के बराबर ऊँचा आकाश में उड़ा । उड़कर उत्कृष्ट, शीघ्रतावाली देव संवन्धी दिव्या गति से लवणसमुद्र के बीचोंबीच होकर जिधर जम्बूद्वीप था, भरतक्षेत्र था और जिधर चम्पानगरी थी, उसी ओर खाना हो गया । [१२५] तत्पश्चात् रत्नद्वीप की देवी ने लवणसमुद्र के चारों तरफ इक्कीस चक्कर लगाकर, उसमें जो कुछ भी तृण आदि कचरा था, वह सब यावत् दूर किया । दूर करके अपने उत्तम प्रासाद में आई । आकर माकन्दीपुत्रों को उत्तम प्रासाद में न देख कर पूर्व दिशा के वनखण्ड में गई । वहाँ सब जगह उसने मार्गणा की । पर उन माकन्दीपुत्रों की कहीं भी श्रुति, आदि आवाज, छींक एवं प्रवृत्ति न पाती हुई उत्तर दिशा के वनखण्ड में गई । इसी प्रकार पश्चिम के गई, पर वे कहीं दिखाई न दिये । तब उसने अवधिज्ञान का प्रयोग करके उसने माकन्दीपुत्रों को शैलक के साथ लवणसमुद्र के बीचों-बीच होकर चले जाते देखा । वह तत्काल क्रुद्ध हुई। उसने ढाल-तलवार ली और सात-आठ ताड़ जितनी ऊँचाई पर आकाश में उड़कर उत्कृष्ट एवं शीघ्र गति करके जहाँ माकन्दीपुत्र थे वहाँ आई । आकर इस प्रकार कहने लगी- 'अरे माकन्दी के पुत्रों ! अरे मौत की कामना करने वालो ! क्या तुम समझते हो कि मेरा त्याग करके, शैलकयक्ष के सात, लवणसमुद्र के मध्य में होकर तुम चले जाओगे ? इतने चले जाने पर भी अगर तुम मेरी अपेक्षा रखते हो तो तुम जीवित रहोगे, अन्यथा इस नील कमल एवं भैंस के सींग जैसी काली तलवार से यावत् तुम्हारा मस्तक काट कर फैंक दूंगी । उस समय वे माकंदीपुत्र रत्नद्वीप की देवी के इस कथन को सुनकर और हृदय में धारण करके भयभीत नहीं हुए, त्रास को प्राप्त नहीं हुए, उद्विग्न नहीं हुए, संभ्रान्त नहीं हुए। अतएव उन्होंने रत्नद्वीप की देवी के इस अर्थ का आदर नहीं किया, उसे अंगीकार नहीं किया,
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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