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________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद वैयावृत्यकारी स्थापित करके बाहर जनपद में अभ्युद्यत विचरण करें ।' उन मुनियों ने ऐसा विचार करके, कल शैलक राजर्षि के समीप जाकर, उनकी आज्ञा लेकर, प्रतिहारी पीठ फलक शय्या संस्तारक वापिस दे दिये । पंथक अनगार को वैयावृत्यकारी नियुक्त किया- उनको सेवा में रखा । रखकर बाहर देश - देशान्तर में विचरने लगे । १२२ [७१] तब वह पंथक अनगार शैलक राजर्षि की शय्या संस्तारक, उच्चार, प्रस्त्रवण, श्लेष्म, संघाण के पात्र, औषध, भेधज, आहार, पानी आदि से विना ग्लानि, विनयपूर्वक वैयावृत्य करने लगे । उस समय पंथक मुनि ने कार्तिक की चौमासी के दिन कायोत्सर्ग करके दैवसिक प्रतिक्रमण करके, चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करने की इच्छा से शैलक राजर्षि को खमाने के लिए अपने मस्तक से उनके चरणों को स्पर्श किया । पंथक के द्वारा मस्तक से चरणों का स्पर्श करने पर शैलक राजर्षि एकदम क्रुद्ध हुए, यावत् क्रोध से मिसमिसाने लगे और उठ गये । उठकर बोले- 'अरे, कौन है यह अप्रार्थित की इच्छा करनेवाला, यावत् सर्वथा शून्य, जिसने सुखपूर्वक सोये हुए मेरे पैरों का स्पर्श किया ? शैलक ऋषि के इस प्रकार कहने पर पंथक मुनि भयभीत हो गये, त्रास को और खेद को प्राप्त हुए । दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके कहने लगे 'भगवन् ! मैं पंथक हूँ । मैंने कायोत्सर्ग करके दैवसिक प्रतिक्रमण किया है और चौमासी प्रतिक्रमण करता हूँ । अतएव चौमासी क्षमापना के लिए आप देवानुप्रिय को वन्दना करते समय, मैंने अपने मस्तक से आपके चरणों का स्पर्श किया है । सौ देवानुप्रिय ! क्षमा कीजिए, मेरा अपराध क्षमा कीजिए । देवानुप्रिय ! फिर ऐसा नहीं करूंगा ।' शैलक अनगार को सम्यक् रूप से, विनयपूर्वक इस अर्थ के लिए वे पुनः पुनः खमाने लगे । पंथक के द्वारा इस प्रकार कहने पर उन शैलक राजर्षि को यह विचार उत्पन्न हुआ - 'मैं राज्य आदि का त्याग करके भी यावत् अवसन्नआलसी आदि होकर शेष काल में भी पीठ, फलक आदि रख कर विचर रहा हूँ-रह रहा हूँ । श्रमण निर्ग्रन्थों को पार्श्वस्थ शिथिलाचारी होकर रहना नहीं कल्पता । अत एव कल मंडुक राजा से पूछ कर, पडिहारी पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक वापिस देकर, पंथक अनगार के साथ, बाहर अभ्युद्यत विहार से विचरना ही मेरे लिए श्रेयस्कर है ।' उन्होंने ऐसा विचार किया । विचार करके दूसरे दिन यावत् उसी प्रकार करके विहार कर दिया । [७२] हे आयुष्मन् श्रमणो ! इसी प्रकार जो साधु या साध्वी आलसी होकर, संस्ताकर आदि के विषय में प्रमादी होकर रहता है, वह इसी लोक में बहुत-से श्रमणों, बहुत-सी श्रमणियों, बहुत-से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकों की हीलना का पात्र होता है । यावत् वह. चिरकाल पर्यन्त संसार - भ्रमण करता है । तत्पश्चात् पंथक को छोड़कर पाँच सौ अनगारों ने यह वृत्तान्त जाना । तब उन्होंने एक दूसरे को बुलाया । बुलाकर इस प्रकार कहा - 'शैलक राजर्षि पंथक मुनि के साथ बाहर यावत् उग्र विहार कर रहे हैं तो हे देवानुप्रियो ! अब हमें शैलक राजर्षि के समीप चर कर विचरना उचित है ।' उन्होंने ऐसा विचार किया । विचार करके राजर्षि शैलक के निकट जाकर विचरने लगे । तत्पश्चात् शैलक प्रभृति पाँच सौ मुनि बहुत वर्षों तक संयमपर्याय पाल कर जहाँ पुंडरीक शत्रुंजय पर्वत था, वहाँ आये । आकर थावच्चापुत्र की भाँति सिद्ध हुए । [७३] इसी प्रकार है आयुष्मन् श्रमणो ! जो साधु या साध्वी इस तरह विचरेगा वह
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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