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ज्ञाताधर्मकथा-१/-/३/५५
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का यह अर्थ फर्माया है तो तीसरे अध्ययन का क्या फर्माया है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में चम्पा नामक नगरी थी । ( वर्णन) उस चम्पा नगरी से बाहर ईशान कोण में सुभूमिभाग नामक एक उद्यान था । वह सभी ऋतुओं के फूलों-फलों से सम्पन्न रहता था और रमणीय था । नन्दन-वन के समान शुभ था या सुखकारक था तथा सुगंधयुक्त और शीतल छाया से व्याप्त था । उस सुभूमिभाग उद्यान के उत्तर में, एक प्रदेश में, एक मालुकाकच्छ था, उस मालुकाकच्छ में एक श्रेष्ठ मयूरी ने पुष्ट, पर्यायागत चावलों के पिंड के समान श्वेत वर्णवाले, व्रण रहित, उपद्रव रहित तथा पोली मुट्ठी के बराबर, दो मयूरी के अंडों का प्रसव किया । वह अपने पांखों की वायु से उनकी रक्षा करती, उनका संगोपन करती और संवेष्टन करती हुई रहती थी ।
उस चम्पानगरी में दो सार्थवाह - पुत्र निवास करते थे । जिनदत्त पुत्र और सागरदत्त पुत्र । दोनों साथ ही जन्मे थे, साथ ही बड़े हुए थे, साथ ही धूल में खेले थे, साथ ही विवाहित हुए थे अथवा एक साथ रहते हुए एक-दूसरे को देखने वाले थे दोनों का परस्पर अनुराग था । एक, दूसरे का अनुसरण करता था, एक, दूसरे की इच्छा के अनुसार चलता था । दोनों एक दूसरे के हृदय का इच्छित कार्य करते थे और एक-दूसरे के घरों में कृत्य और करणीय
।
हुथे ।
[५६] तत्पश्चात् वे सार्थवाहपुत्र किसी समय इकट्ठे हुए एक के घर में आये ओर एक साथ बैठे थे, उस समय उनमें आपस में इस प्रकार वार्तालाप हुआ - 'हे देवानुप्रिय ! जो भी हमे सुख, दुःख, प्रव्रज्या अथवा विदेश गमन प्राप्त हो, उस सब का हमें एक दूसरे के साथ ही निर्वाह करना चाहिए । इस प्रकार कह कर दोनों ने आपस में इस प्रकार की प्रतिज्ञा अंगीकर करके अपने-अपने कार्य में लग गये ।
[ ५७ ] उस चम्पानगरी में देवदत्ता नामक गणिका निवास करती थी । वह समृद्ध थी, वह बहुत भोजन - पान वाली थी । चौसठ कलाओं में पंडिता थी । गणिका के चौसठ गुणों से युक्त थी । उनतीस प्रकार की विशेष क्रीडाएँ करनेवाली थी । कामक्रीडा के इक्कीस गुणों में कुशल थी । बत्तीस प्रकार के पुरुष के उपचार करने में कुशल थी । उसके सोते हुए नौ अंग जाग्रत हो चुके थे । अठारह प्रकार की देसी भाषाओं में निपुण थी । वह ऐसा सुन्दर वेष धारण करती थी, मानो श्रृंगारस का स्थान हो । सुन्दर गति, उपहास, वचन, चेष्टा, विलास एवं ललिच संलाप करने में कुशल थी । यांग्य उपचार करने में चतुर थी । उसके घर पर ध्वजा फहराती थी । एक हजार देनेवाले को प्राप्त होती थी । राजा के द्वारा उसे छत्र, चामर और बाल व्यजन प्रदान किया गया था । वह कर्णीरथ नामक वाहन पर आरूढ होकर आती जाती थी, यावत् एक हजार गणिकाओं का आधिपत्य करती हुई रहती थी । वे सार्थवाहपुत्र किसी समय मध्याह्नकाल में भोजन करने के अनन्तर आचमन करके, हाथ-पैर धोकर स्वच्छ होकर, परम पवित्र होकर सुखद आसनों पर बैठे । उस समय उन दोनों में आपस में इस प्रकार की बात-चीत हुई- 'हे देवानुप्रिय ! अपने लिए यह अच्छा होगा कि कल यावत् सूर्य के देदीप्यमान होने पर विपुल अशन, पान, खादिम, और स्वादिम तथा धूप, पुष्प, गंध और वस्त्र साथ में लेकर देवदत्ता गणिका के साथ सुभूमिभाग नामक उद्यान में उद्यान की शोभा का अनुभव करते हुए विचरें ।' इस प्रकार कहकर दोनों ने एक दूसरे की बात स्वीकार की । दूसरे दिन सूर्योदय