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________________ ज्ञाताधर्मकथा-१/-/२/५२ १०३ [५२] तब भद्रा सार्थवाही दास चेटक पंथक के मुख से यह अर्थ सुनकर तत्काल लाल हो गई, रुष्ट हुई यावत् मिसमिसाती हुई धन्य सार्थवाह पर प्रद्वेष करने लगी । तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह को किसी समय मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिवार के लोगों ने अपने साभूत अर्थ से-राजदण्ड से मुक्त कराया । मुक्त होकर वह कारागार से बाहर निकला । निकल कर जहाँ आलंकरिक सभा थी, वहाँ पहुंचा । आलंकरिक-कर्म किया । फिर जहाँ पुष्करिणी थी, वहाँ गया । नीचे की ने की मिट्टी ली और पुष्करिणी में अवगाहन किया, जल से मजन किया, स्नान किया, बलिकर्म किया, यावत् फिर राजगृह में प्रवेश किया । राजगृह के मध्य में होकर जहाँ अपना घर था वहाँ जाने के लिए खाना हुआ । तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह को आता देखकर राजगृह नगर के बहुत-से आत्मीय जनों, श्रेष्ठी जनों तथा सार्थवाह आदि ने उसकी आदर किया, सन्मान से बुलाया, वस्त्र आदि से सत्कार किया नमस्कार आदि करके सन्मान किया, खड़े होकर मान किया और शरीर की कुशल पूछी । तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह अपने घर पहुंचा । वहाँ जौ बाहर की सभा थी, जैसे-दास, प्रेष्य, भृतक और व्यापार के हिस्सेदार, उन्हों भी धन्य सार्थवाह को आता देखा । देख कर पैरों में गिर कर क्षेम, कुशल की पृच्छा की । वहाँ जो आभ्यन्तर सभा थी, जैसे कि माता, पिता, भाई, बहिन आदि, उन्होंने भी धन्य सार्थवाह को आता देखा । देखकर वे आसन से उठ खड़े हुए, उठकर गले से गला मिलाकर उन्होंने हर्श के आँसु बहाये । तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह भद्रा भार्या के पास गया । भद्रा सार्थवाही ने धन्य सार्थवाह को अपनी ओर आता देखा । न उसने आदर किया, न जाना । न आगर करती हुई और न जानती हुई वह मौन रह कर और पीठ फेर कर बैठी रही । तब धन्य सार्थवाह ने अपनी पत्नी भद्रा से इस प्रकार कहा-देवानुप्रिये ! मेरे आने से तुम्हें सन्तोष क्यों नहीं है ? हर्ष क्यों नहीं है ? आनन्द क्यों नहीं है ? मैंने अपने सारभूत अर्थ से राजकार्य से अपने आपको छुड़ाया हे । तब भद्रा ने धन्य सार्थवाह से इस प्रकार कहा -देवानुप्रिय ! मुझे क्यों सन्तोष, हर्ष और आनन्द होगा, जब गि तुमने मेरे पुत्र केघातक यावत् वैरी तथा प्रत्यमित्र को उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन में से संविभाग किया-हिस्सा दिया । तब धन्या सार्थवाह ने भद्रा से कहा-'देवानुप्रिये ! धर्म समझकर, तप, किये उपकार का बदला, लोकयात्रा, न्याय. नायक. सहचर. सहायक. अथवा सहद समझकर मैने उस विपल. अशन. पान. खादिम और स्वादिम में से संविभाग नहीं किया है । सिवाय शरीर चिन्ता के और किसी प्रयोजन से संविभाग नहीं किया ।' धन्य सार्थवाह के इस स्पष्टीकरण से भद्रा हृष्ट-तुष्ट हुई, वह आसन से उठी, उसने धन्य सार्थवाह को कंठ से लगाया और उसका कुशल-क्षेम पूछा । फिर स्नान किया, यावत् प्रायश्चित्त किया और पाँचों इन्द्रियों के विपुल भोग भोगती हुई रहने लगी । तत्पश्चात् विजय चोर कारागार में बन्ध, वध, चाबूकों केप्रहार यावत् प्यास और भूख से पीड़ित होता हुआ, मृत्यु के अवसर पर काल करके नारक रूप से नरक में उत्पन्न हुआ । वह काला और अतिशय काला दिखता था, वेदना का अनुभव कर रहा था । वह नरक से निकल कर अनादि अनन्त दीर्घ मार्ग या दीर्घकाल वाले चतुर्गति रूप संसार-कान्तार में पर्यटन करेगा । जम्बू ! इसी प्रकार हमारा जो साधु या साध्वी, आचार्य या उपाध्याय के पास मुण्डित होकर, गृहत्याग कर, साधुत्व की दीक्षा अंगीकार करके विपुल मणि मौक्तिक धन कनक और
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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