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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
देखता हुआ, उनकी मार्गणा करता हुआ, गवेषणा करता हुआ, जहाँ देवदत्त बालक था, वहाँ आ पहुँचा । आकर देवदत्त बालक को सभी आभूषणों से भूषित देखा । देखकर बालक देवदत्त के आभरणों और अलंकारों से मूर्छित हो गया, ग्रथित हो गया, गृद्ध हो गया और अध्युपपन्न हो गया । उसने दास चेटक पंथक को बेखबर देखा और चारों दिशाओं का अवलोकन किया । फिर बालक देवदत्त को उठाकर कांख में दबा लिया । ओढ़ने के कपड़े से छिपा लिया । फिर शीघ्र, त्वरित, चपल और उतावल के साथ राजगृह नगर से बाहर निकल गया । जहाँ जीर्ण उद्यान और जहाँ टूटा-फूटा कुआ था, वहाँ पहुँचा । देवदत्त बालक को जीवन से रहित कर दिया । उसके सब आभरण और अलंकार ले लिये । फिर बालक देवदत्त के निर्जीव शरीर को उस भग्न कूपमें पटक दिया । इसके बाद वह मालुकाकच्छ, में घुस गया और निश्चल निस्पन्द, और मौन रहकर दिन समाप्त होने की राह देखने लगा।
[४९] तत्पश्चात् वह पंथक नामक दास चेटक थोड़ी देर बाद जहाँ बालक देवदत्त को बिठाया था, वहाँ पहुँचा । उसने देवदत्त बालक को उस स्थान पर न देखा । तब वह रोता, चिल्लाता, विलाप करता हुआ सब जगह उसकी ढूंढ-खोज करने लगा । मगर कहीं भी उसे बालक देवदत्त की खबर न लगी, छींक वगैरह का शब्द न सुनाई दिया, न पता चला । तब जहाँ धन्य सार्थवाह था, वहाँ पहुँचा । धन्य सार्थवाह से इस प्रकार कहने लगा-स्वामिन् ! भद्रा सार्थवाही ने स्नान किए, बलिकर्म किये हुए, कौतुक, मंगल, प्रायश्चित किए हुए और सभी अलंकारों से विभूषित बालक को मेरे हाथ में दिया था । तत्पश्चात् मैंने बालक देवदत्त को कमर में ले लिया । लेकर यावत् सब वगह उसकी ढूंढ-खोज की, परन्ती नहीं मालूम स्वामिन् ! कि देवदत्त बालक को कोई मित्रादि अपने घर ले गया है, चोर ने उसका अपहण कर लिया है अथवा किसी ने ललचा लिया है ? इस प्रकार धन्य सार्थवाहग के पैरों में पड़कर उसने वह वृत्तान्त निवेदन किया । धन्य सार्थवाह पंथक दास चेटक की यह बात सुनकर और हृदय में धारण करके महान् पुत्र-शोक से व्याकुल होकर, कुल्हाड़े से काटे हुए चम्पक वृक्ष की तरह पृथ्वी पर सब अंगों से धड़ाम से गिर पड़ा ।
तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह थोड़ी देर बाद आश्वस्त हुआ-होश में आया, उसके प्राण मानों वापिस लौटे, उसने देवदत्त बालक की सब ओर ढूंढ-खोज की, मगर कही भी देवदत्त बालक का पता न चला, छींक आदि का शब्द भी न सुन पड़ा और न समाचार मिला । तब वह अपने घर पर आया । आकर बहुमूल्य भेंट ली और जहाँ नगररक्षक-कोतवाल आदि थे, वहाँ पहुँच कर वह बहुमूल्य भेंट उनके सामने रखी और इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! मेरा पुत्र और भद्रा भार्या का आत्मज देवदत्त नामक बालक हमें इष्ट है,यावत् उसका नाम श्रवण करना भी दुर्लभ है तो फिल दर्शन का तो कहना ही क्या है ! धन्य सार्थवाह ने आगे कहाभद्रा ने देवदत्त को स्नान करा कर और समस्त अलंकारों से विभूषित करके पंथक के हाथ में सौंप दिया । यावत् पंथक ने मेरे पैरों में गिर कर मुझसे निवेदन किया । तो हे देवानुप्रिय ! मैं चाहता हूँ कि आप देवदत्त बालक की सब जगह मार्गणा-गवेषणा करें ।
[५०] तत्पश्चात् उन नगररक्षकों ने धन्य सार्थवाह के ऐसा कहने पर कवच तैयार किया, उसे कसों से बाँधा और शरीर पर धारण किय । धनुष रूपी पट्टिका पर प्रत्यंचा चढ़ाई। आयुध और प्रहरण ग्रहण किये । फिर धन्य सार्थवाह के साथ राजगृह नगर के बहुत-से