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भगवती-१३/-/६/५८७
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पूर्णभद्र नामक चैत्य से निकले और क्रमशः विचरण करते हुए, ग्रामानुग्राम यावत् विहार करते हुए जहाँ सिन्धु-सौवीर जनपद था, जहाँ वीतिभय नगर था और उसमें मृगवन नामक उद्यान था, वहाँ पधारे यावत् विचरने लगे । वीतिभय नगर में श्रृंगाटक आदि मार्गों में (भगवान् के पधारने की चर्चा होने लगी) यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी।
उस समय बात को सुन कर उदायन राजा हर्षित एवं सन्तुष्ट हआ । उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे कहा-'देवानुप्रियो ! तुम शीघ्र ही वीतिभय नगर को भीतर और बाहर से स्वच्छ करवाओ, इत्यादि कूणिक का वर्णन है, तदनुसार यहाँ भी पर्युपासना करता है; प्रभावती-प्रमुख रानियाँ भी उसी प्रकार यावत् पर्युपासना करती है । धर्मकथा कही । उस अवसर पर श्रमण भगवान् महावीर से धर्मोपदेश सुनकर एवं हृदय में अवधारण करके उदायन नरेश अत्यन्त हर्षित एवं सन्तुष्ट हुए । वे खड़े हुए और फिर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा की यावत् नमस्कार करके बोले-भगवन् ! जैसा आपने कहा, वैसा ही है, भगवन् ! यही तथ्य है, यथार्थ है, यावत् जिस प्रकार आपने कहा है, उसी प्रकार है । यों कह कर आगे विशेषरूप से कहने लगे-'हे देवानुप्रिय ! अभीचि कुमार का राज्याभिषेक करके उसे राज पर बिठा दूँ और तब मैं आप देवानुप्रिय के पास मुण्डित हो कर यावत् प्रव्रजित हो जाऊँ ।' 'हे देवानुप्रिय ! तुम्हें जैसा सुख हो, (वैसा करो,) विलम्ब मत करो ।' श्रमण भगवान महावीर द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर उदायन राजा हृष्ट-तुष्ट एवं आनन्दित हुए । उदायन नरेश ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार किया और फिर उसी अभिषेक-योग्य पट्टहस्ती पर आरूढ होकर श्रमण भगवान् महावीर के पास से, मृगवान् उद्यान से निकले और वीतभय नगर जाने के लिए प्रस्थान किया ।
तत्पश्चात् उदायन राजा को इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् उत्पन्न हुआ-'वास्तव में अभीचि कुमार मेरा एक ही पुत्र है, वह मुझे अत्यन्त इष्ट एवं प्रिय है; यावत् उसका नाम-श्रमण भी दुर्लभ है तो फिर उसके दर्शन दुर्लभ हों, इसमें तो कहना ही क्या ? अतः यदि मैं अभीचि कुमार को राजसिंहासन पर बिठा कर श्रमण भगवान् महावीर के पास मुण्डित होकर यावत् प्रव्रजित हो जाऊं तो अभीचि कुमार राज्य और राष्ट्र में, यावत् जनपद में और मनुष्य-सम्बन्धी कामभोगों में मूर्छित, गृद्ध, ग्रथित एवं अत्यधिक तल्लीन होकर अनादि, अनन्त दीर्घमार्ग वाले चतुर्गगतिरूप संसार-अटवी में परिभ्रमण करेगा । अतः मेरे लिए अभीचि कुमार को राज्यारूढ कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास, मुण्डित होकर यावत् प्रव्रजित होना श्रेयस्कर नहीं है । अपितु मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं अपने भानजे केशी कुमार को राज्यारूढ करके श्रमण भगवान् महावीर के पास यावत् प्रव्रजित हो जाऊँ ।' उदायननृप इस प्रकार अन्तर्मन्थन करता हुआ वीतिभय नगर के निकट आया वीतिभय नगर के मध्य में होता हुआ अपने राजभवन के बाहर की उपस्थानशाला में आया और अभिषेक योग्य पट्टहस्ती को खड़ा किया । फिर उस पर से नीचे उतरा । तत्पश्चात् वह राजसभा में सिंहासन के पास आया और पूर्वदिशा की ओर मुख करके उक्त सिंहासन पर बैठा । तदनन्तर अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर उन्हें इस प्रकार का आदेश दिया-देवानुप्रियो ! वीतिभय नगर को भीतर और बाहर से शीघ्र ही स्वच्छ करवाओ, यावत् कौटुम्बिक पुरुषों ने नगर की भीतर और बाहर से सफाई करवा कर यावत् उनके आदेश-पालन का निवेदन किया ।
तदनन्तर उदायन राजा ने दूसरी बार कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उन्हें इस प्रकार की आज्ञा दी-'देवानुप्रियो ! केशी कुमार के महार्थक, महामूल्य, महान् जनों के योग्य यावत्