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भगवती - १३/-/४/५८२
सर्वसंक्षिप्त भाग कहाँ कहा गया है ? गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर के और नीचे के क्षुद्र प्रतरों में लोक का बहुसम भाग है और यहीं लोक का सर्वसंक्षिप्त भाग कहा गया है ।
भगवन् ! लोक का विग्रह - विग्रहिक भाग कहाँ कहा गया है ? गौतम ! जहाँ विग्रहकण्डक है, वहीं लोक का विग्रह - विग्रहिक भाग कहा गया है ।
[५८३] भगवन् ! इस लोक का संस्थान किस प्रकार का है ? गौतम ! सुप्रतिष्ठक के आकार का है । यह लोक नीचे विस्तीर्ण है, मध्य में संक्षिप्त है, इत्यादि वर्णन सप्तम शतक के प्रथम उद्देशक के अनुसार कहना ।
भगवन् ! अधोलोक, तिर्यग्लोक और उर्ध्वलोक में, कौन-सा लोक किस लोक से छोटा यावत् बहुत, सम अथवा विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे छोटा तिर्यक् लोक है । ( उससे ) ऊर्ध्वलोक असंख्यात गुणा है और उससे अधोलोक विशेषाधिक है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
शतक - १३ उद्देशक - ५
[५८४] भगवन् ! नैरयिक सचित्ताहारी हैं, अचित्ताहारी या मिश्राहारी हैं ? गौतम ! नैरयिक न तो सचित्ताहारी हैं और न मिश्राहारी हैं, वे अचित्ताहारी हैं । यहाँ आहारपद का समग्र प्रथम उद्देशक कहना चाहिए । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
शतक - १३ उद्देशक - ६
[५८५] राजगृह नगर में यावत् पूछा- भगवन् ! नैरयिक सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं ? गौतम ! नैरयिक सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी । असुरकुमार भी इसी तरह उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार जैसे नौवें शतक के बत्तीसवें गांगेय उद्देशक में उत्पाद और उद्वर्त्तना के सम्बन्ध में दो दण्डक कहे हैं, वैसे ही यहाँ भी, यावत् वैमानिक सान्तर भी च्यवते हैं। और निरन्तर भी च्यवते रहते हैं ।
भगवन् ! असुरेन्द्र और असुरकुमारराज 'चमर' का 'चमरचंच' नामक आवास कहाँ कहा गया है ? गौतम ! जम्बूद्वीप में मन्दर (मेरु) पर्वत से दक्षिण में तिरछे असंख्य द्वीप- समुद्रों को पार करने के बाद, द्वितीय शतक के आठवें उद्देशक अनुसार समग्र वक्तव्यता समझ लेना । यावत् तिगिञ्चकूट के उत्पातपर्वत का, चमरचंचा राजधानी का, चमरचंच नामक आवास- पर्वत का और अन्य बहुत-से द्वीप आदि तक का वर्णन उसी प्रकार कहना, यावत् तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन तीन गाऊ, दो सौ अठाईस धनुष और कुछ विशेषाधिक साढ़े तेरह अंगुल परिधि हैं । चमरचंचा राजधानी से नैऋत्यकोण में ६५५ करोड़, ३५ लाख ५० हजार योजन दूर अरुणोदक समुद्र में तिरछे पार करने के बाद वहाँ असुरेन्द्र एवं असुरकुमारों के राजा चमर का चमरचंच नामक आवास है, जो लम्बाई-चौड़ाई में ८४ हजार योजन है । उसकी परिधि दो लाख पैंसठ हजार छह सौ बत्तीस योजन से कुछ अधिक है । यह आवास एक प्रकार से चारों ओर से घिरा हुआ है । वह प्राकार ऊँचाई में डेढ़ सौ योजन ऊँचा है । इस प्रकार चमरचंचा राजधानी की सारी वक्तव्यता, सभा को छोड़कर, यावत् चार प्रासाद-पंक्तियाँ हैं तक कहना ।
[५८६] भगवन् ! असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर क्या उस 'चमरचंच' आवास में निवास करके रहता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! फिर किस कारण से चमरेन्द्र का