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भगवती - १३/-/४/५७३
दशवें शतक के अनुसार, दिशाओं के दश नाम ये हैं; (यहाँ तक) कहना ।
[ ५७४] भगवन् ! इन्द्रा (पूर्व) दिशा के आदि में क्या है ?, वह कहाँ से निकली है ? उसके आदि में कितने प्रदेश हैं ? उत्तरोत्तर कितने प्रदेशों की वृद्धि होती है ? वह कितने प्रदेश वाली है ? उसका पर्यवसान कहाँ होता है ! और उसका संस्थान कैसा है ? गौतम ! ऐन्द्री दिशा के प्रारम्भ में रुचक प्रदेश है । वह रुचक प्रदेशों से निकली है । उसके प्रारम्भ में दो प्रदेश होते हैं। आगे दो-दो प्रदेशों की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है । वह लोक की अपेक्षा से असंख्यातप्रदेश वाली है और अलोक की अपेक्षा से अनन्तप्रदेश वाली है । लोक - आश्रयी वह सादि - सान्त है और अलोक - आश्रयी वह सादि - अनन्त है । लोक आश्रयी वह मुरज के आकर की है, और अलोक आश्रयी वह ऊर्ध्वशकटाकार की है ।
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भगवन् ! आग्नेयी दिशा के आदि में क्या है ? उसका उद्गम कहाँ से है ? उसके आदि में कितने प्रदेश हैं ? वह कितने प्रदेशों के विस्तार वाली है ? वह कितने प्रदेशों वाली है ? उसका अन्त कहाँ होता है ? और उसका संस्थान कैसा है ? गौतम ! आग्नेयी दिशा के आदि में रुचकप्रदेश हैं । उसका उद्गम भी रुचकप्रदेश से है । उसके आदि में एक प्रदेश है । वह अन्त तक एकएक प्रदेश के विस्तार वाली है । वह अनुत्तर है । वह लोक की अपेक्षा असंख्यातप्रदेश वाली है और अलोक की अपेक्षा अनन्तप्रदेश वाली है । वह लोक आश्रयी सादि - सान्त है और अलोकआश्रयी सादि-अनन्त है । उसका आकार टूटी हुई मुक्तावली के समान है । याम्या का स्वरूप ऐन्द्री के समान समझना चाहिए। नैकृती का स्वरूप आग्नेयी के समान मानना चाहिए । (संक्षेप में) ऐन्द्री दिशा के समान चारों दिशाओं का तथा आग्नेयी दिशा के समान चारो विदिशाओं का स्वरूप जानना चाहिए ।
भगवन् ! विमला (ऊर्ध्व) दिशा के आदि में क्या है ? इत्यादि आग्नेयी के समान प्रश्न । गौतम ! विमल दिशा के आदि में रुचक प्रदेश हैं । वह रुचकप्रदेशों से निकली है । उसके आदि में चार प्रदेश हैं । वह अन्त तक दो प्रदेशों के विस्तार वाली है । वह अनुत्तर है । लोक - आश्रयी वह असंख्यात प्रदेश वाली है, जबकि अलोक आश्रयी अनन्त प्रदेश वाली है, इत्यादि शेष सब वर्णन आग्नेयी के समान कहना चाहिए । विशेषता यह है कि वह रुचकाकार है । तमा (अधो) दिशा के विषय में भी ( कहना चाहिए ।)
[ ५७५] भगवन् ! यह लोक क्या कहलाता है-लोक का स्वरूप क्या है ? गौतम ! पंचास्तिकाय का समूहरूप ही यह लोक कहलाता है । वे पंचास्तिकाय इस प्रकार हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, यावत् पुद्गलास्तिकाय ।
भगवन् ! धर्मास्तिकाय से जीवों की क्या प्रवृत्ति होती है ? गौतम ! धर्मास्तिकाय से जीवों के आगमन, गमन, भाषा, उन्मेष, मनोयोग, वचनयोग और काययोग प्रवृत्त होते हैं । ये और इस प्रकार के जितने भी चल भाव हैं वे सब धर्मास्तिकाय द्वारा प्रवृत्त होते हैं । धर्मास्तिकाय का लक्षण गतिरूप है । भगवन् ! अधर्मास्तिकाय से जीवो की क्या प्रवृत्ति होती है ? गौतम ! अधर्मास्तिकाय से जीवों के स्थान, निषीदन, त्वग्वर्त्तन और मन को एकाग्र करना (आदि की प्रवृत्ति होती है 1 ) ये तथा इस प्रकार के जितने भी स्थिर भाव हैं, वे सब अधर्मास्तिकाय से प्रवृत्त होते हैं । अधर्मास्तिकाय का लक्षण स्थितिरूप है । भगवन् ! आकाशास्तिकाय से जीवों और अजीवों की क्या प्रवृत्ति होती है ? गौतम ! आकाशास्तिकाय, जीवद्रव्यों और अजीवद्रव्यों का
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