________________
भगवती-१३/-/२/५६७
भगवन् ! क्या असुरकुमार देवों के चौसठ लाख असुरकुमारावासों में से संख्यात योजन विस्तृत असुरकुमारावासों में सम्यग्दृष्टि असुरकुमार उत्पन्न होते हैं अथवा मिथ्यादृष्टि उत्पन्न होते हैं, या मिश्र दृष्टि उत्पन्न होते हैं ? (गौतम !) रत्नप्रभापृथ्वी के सम्बन्ध में कहे तीन आलापक यहाँ भी कहने चाहिए और असंख्यात योजन विस्तृत असुरकुमारावासों के विषय में भी इसी प्रकार तीन आलापक कहना । इसी प्रकार यावत् ग्रैवेयकविमानों तथा अनुत्तरविमानों में भी इसी प्रकार कहना । विशेष बात यह है कि अनुत्तरविमानों के तीनों आलापकों में मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि का कथन नहीं करना । शेष पूर्ववत् ।
भगवन् ! क्या कृष्णलेश्यी नीललेश्यी यावत् शुक्ललेश्यी होकर जीव कृष्णलेश्यी देवों में उत्पन्न हो जाता है ? हाँ, गौतम ! जिस प्रकार (तेरहवें शतक के) प्रथम उद्देशक में नैरयिकों के विषय में कहा, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए । नीललेश्यी के विषय में भी उसी प्रकार कहना चाहिए, इसी प्रकार यावत् पद्मलेश्यी देवों के विषय में कहना । शुक्ललेश्यी देवों के विषय में भी इसी प्रकार कहना । विशेषता यह है कि लेश्यास्थान विशुद्ध होते-होते शुक्ललेश्या में परिणत हो जाते हैं । शुक्ललेश्या में परिणत होने के पश्चात् ही (वे जीव) शुक्ललेश्यी देवों में उत्पन्न होते हैं । इस कारण से हे गौतम ! 'उत्पन्न होते हैं। ऐसा कहा गया है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
| शतक-१३ उद्देशक-३ | [५६८] भगवन् ! क्या नैरयिक जीव अनन्तराहारी होते हैं इसके बाद निर्वर्तना करते हैं ? इत्यादि प्रश्न । (हाँ गौतम !) वे इसी प्रकार से करते हैं । (इसके उत्तर में) प्रज्ञापना सूत्र का परिचारणांपद समग्र कहना । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
| शतक-१३ उद्देशक-४ [५६९] भगवन् ! नरकपृथ्वीयाँ कितनी हैं ? गौतम ! सात, यथा-रत्नप्रभा यावत् अधःसप्तमा पृथ्वी । अधः सप्तमपृथ्वी में पांच अनुत्तर और महातिमहान् नरकावास यावत् अप्रतिष्ठान तक हैं । वे नरकावास छठी तमःप्रभापृथ्वी के नरकावासों से महत्तर हैं, महाविस्तीर्णतर हैं, महान अवकाश वाले हैं, बहुत रिक्त स्थान वाले हैं; किन्तु वे महाप्रवेशवाले नहीं हैं, वे अत्यन्त आकीर्णतर और व्याकुलतायुक्त नहीं हैं, उन नरकावासों में रहे हुए नैरयिक, छठो तमःप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की अपेक्षा महाकर्म वाले, महाक्रिया वाले महाश्रव वाले एवं महावेदना वाले हैं । वे न तो अल्पकर्म वाले हैं और न अल्प क्रिया, अल्प आश्रव और अल्पवेदना वाले हैं । वे नैरयिक अल्प वृद्धि वाले और अल्पद्युति वाले हैं । वैसे वे महान् ऋद्धि वाले और महाधुति वाले नहीं हैं ।
छठी तमःप्रभापृथ्वी में पांच कम एक लाख नारकावास कहे गए हैं । वे नारकावास अधः-सप्तमपृथ्वी के नारकावासों के जैसे न तो महत्तर हैं और न ही महाविस्तीर्ण हैं; न ही महान् अवकाश वाले हैं और न शून्य स्थान वाले हैं । वे महाप्रवेश वाले हैं, संकीर्ण हैं, व्याप्त हैं, विशाल हैं । उन नारकावासों में रहे हए नैरयिक अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिकों की अपेक्षा अल्पकर्म, अल्पक्रिया, अल्प-आश्रव और अल्पवेदना वाले हैं । वे अधः-सप्तमपृथ्वी के नारकों के समान महाकर्म, महाक्रिया, महाश्रव और महावेदना वाले नहीं हैं । वे उनकी अपेक्षा महान ऋद्धि और