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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
देह पर सींचा, जल का आचमन आदि करके स्वच्छ और परम पवित्र होकर देव और पितरों का कार्य सम्पन्न करके कलश में डाभ डालकर उसे हाथ में लिए हुए गंगा महानदी से बाहर निकले
और जहाँ अपनी कुटी थी, वहाँ आए । कुटी में उन्होंने डाभ, कुश और बालू से वेदी बनाई। फिर मथनकाष्ठ से अरणि की लकड़ी घिसी और आग सुलगाई । अनि जब धधकने लगी तो उसमें समिधा की लकड़ी डाली और आग अधिक प्रज्वलित की । फिर अग्नि के दाहिनी ओर ये सात वस्तुएँ रखीं, यथा
[५०७] सकथा, वल्कल, स्थान, शय्याभाण्ड, कमण्डलु, लकड़ी का डंडा और शरीर ।
[५०८] फिर मधु, घी और चावलों का अग्नि में हवन किया और चरु (बलिपात्र) में बलिद्रव्य ले कर बलिवैश्वदेव को अर्पण किया और तब अतिथि की पूजा की और उसके बाद शिवराजर्षि ने स्वयं आहार किया । तत्पश्चात् उन शिवराजर्षि ने दूसरी बेला अंगीकार किया और दूसरे बेले के पारणे के दिन शिवराजर्षि आतापनाभूमि से नीचे उतरे, वल्कल के वस्त्र पहने, यावत् प्रथम पारणे की जो विधि की थी, उसी के अनुसार दूसरे पारणे में भी किया । इतना विशेष है कि दूसरे पारणे के दिन दक्षिण दिशा की पूजा की । हे दक्षिणदिशा के लोकपाल यम महाराज ! परलोकसाधना में प्रवृत्त मुझ शिवराजर्षि की रक्षा करें, इत्यादि शेष सब पूर्ववत् जानना चाहिए; यावत् अतिथि की पूजा करके फिर उसने स्वयं आहार किया ।
तदनन्तर उन शिव राजर्षि ने तृतीय बेला अंगीकार किया । उसके पारणे के दिन शिवराजर्षि ने पूर्वोक्त सारी विधि की । इसमें इतनी विशेषता है कि पश्चिमदिशा की पूजा की और प्रार्थना की हे पश्चिम दिशा के लोकपाल वरुण महाराज ! परलोक-साधना-मार्ग में प्रवृत्त मुझ शिवराजर्षि की रक्षा करें, इत्यादि यावत् तब स्वयं आहार किया । तत्पश्चात् उन शिवराजर्षि ने चतुर्थ बेला अंगीकार किया । फिर इस चौथे बेले के तप के पारणे के दिन पूर्ववत सारी विधि की । विशेष यह है कि उन्होंने उत्तरदिशा की पूजा की और इस प्रकार प्रार्थना की हे उत्तरदिशा के लोकपाल वैश्रमण महाराज ! परलोक-साधना-मार्ग में प्रवृत्त इस शिवराजर्षि की रक्षा करें, इत्यादि अवशिष्ट सभी वर्णन पूर्ववत जानना चाहिए यावत् तत्पश्चात् शिवराजर्षि ने स्वयं आहार किया । इसके बाद निरन्तर बेले-बेले की तपश्चर्या के दिक्चक्रवाल का प्रोक्षण करने से, यावत् आतापना लेने से तथा प्रकृति की भद्रता यावत् विनीतता से शिव राजर्षि को किसी दिन तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम के कारण ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए विभंग ज्ञान उत्पन्न हुआ । उस उत्पन्न हुए विभंगज्ञान से वे इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र देखने लगे । इससे आगे वे न जानते थे, न देखते थे ।
तत्पश्चात् शिवराजर्षि को इस प्रकार का विचार यावत् उत्पन्न हुआ कि “मुझे अतिशय ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है । इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं । उससे आगे द्वीपसमुद्रों का विच्छेद है ।" ऐसा विचार कर वे आतापना-भूमि से नीचे उतरे और वल्कलवस्त्र पहने, फिर जहाँ अपनी कुटी थी, वहाँ आए । वहाँ से अपने लोढ़ी, लोहे का कडाह, कुड़छी आदि बहुतसे भण्डोपकरण तथा छबड़ी-सहित कावड़ को लेकर वे हस्तिनापुर नगर में जहाँ तापसों का आश्रम था, वहाँ आए । वहाँ अपने तापसोचित उपकरण रखे और फिर हस्तिनापुर नगर के श्रृंगाटक, त्रिक यावत् राजमार्गों में बहुत-से मनुष्यों को इस प्रकार कहने और यावत् प्ररूपणा करने लगे'हे देवानुप्रियो ! मुझे अतिशय ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है, जिससे मैं यह जानता और देखता हूँ