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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
की वक्तव्यता नौ गमकों में कहनी चाहिए । विशेष यह कि तीसरे, छठे और नौवें गमक में परिमाण जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं । जब स्वयं (पृथ्वीकायिक) जघन्यकाल की स्थिति वाला होता है, तब मध्य के तीन गमकों में से प्रथम गमक में अध्यवसाय प्रशस्त भी होते हैं और अप्रशस्त भी । द्वितीय गमक में अप्रशस्त और तृतीय गमक में प्रशस्त अध्यवसाय होते हैं । शेष पूर्ववत् । यदि वे अष्कायिकों से आकर उत्पन्न हो तो ? (पूर्वोक्त वक्तव्यता कहनी चाहिए ।) इसी प्रकार वनस्पतिकायिकों के लिए भी (पूर्वोक्त वक्तव्यता जाननी चाहिए ।) इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय- पर्यन्त जानना । असंज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक, संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक, असंज्ञी मनुष्य और संज्ञी मनुष्य, इन सभी के विषय में पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक उद्देशक अनुसार कहना चाहिए । विशेषता यह कि परिणाम और अध्यवसायों की भिन्नता पृथ्वीकायिक के इसी उद्देशक में कहे अनुसार समझनी चाहिए । शेष पूर्ववत् ।
भगवन् ! यदि वे (मनुष्य) देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो भवनवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, यावत् वैमानिक देवों से आकर ? गौतम ! वे भवनवासी यावत् वैमानिक देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं । भगवन् ! यदि वे, भवनवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे असुरकुमार - भवनवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, अथवा यावत् स्तनितकुमार देवों से उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! वे असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार भवनवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं । भगवन् ! असुरकुमार भवनवासी देव कितने काल की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! वह जघन्य मासपृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है । पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक उद्देशक अनुसार यहाँ भी कहनी चाहिए । विशेष यह है कि जिस प्रकार वहाँ जघन्य अन्तमुहूर्त की स्थिति वाले तिर्यच में उत्पन्न होने का कहा है, उसी प्रकार यहाँ मासपृथक्त्व की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होने का कथन करना चाहिए । इसके परिमाण में जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं, शेष सब पूर्वकथितानुसार जानना चाहिए । इसी प्रकार ईशान देव तक वक्तव्यता कहनी चाहिए तथा ये विशेषताएँ भी जाननी चाहिए । जैसे पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक उद्देशक अनुसार सनत्कुमार से लेकर सहस्त्रार तक के देव के सम्बन्ध में कहना चाहिए । विशेष यह कि परिमाण - जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं । उनकी उत्पत्ति जघन्य वर्षपृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की स्थिति वाले मनुष्यों में होती है । संवेध - ( जघन्य) वर्षपृथक्त्व (उत्कृष्ट) पूर्वकोटि वर्ष से करना चाहिए ।
सनत्कुमार में स्वयं की उत्कृष्ट स्थिति को चार गुणा करने पर अट्ठाईस सागरोपम होता है । माहेन्द्र में कुछ अधिक अट्ठाईस सागरोपम होता है । ब्रह्मलोक में ४० सागरोपम, लान्तक में छप्पन सागरोपम, महाशुक्र में अड़सठ सागरोपम तथा सहस्त्रार में बहत्तर सागरोपम है । यह उत्कृष्ट स्थिति कही गई है । जघन्य स्थिति को भी चार गुणी करनी चाहिए । भगवन् ! आनतदेव कितने काल की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! जघन्य वर्षपृथक्त्व की और उत्कृष्ट पूर्वकोटिवर्ष की ।
भगवन् ! वे (मनुष्य) एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? सहस्रार देवो अनुसार कहना | परन्तु इनकी अवगाहना, स्थिति और अनुबन्ध के विषय में भिन्नता जानना । भव