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भगवती-२४/-/१९/८५५
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त्रीन्द्रिय- उद्देशक चतुरिन्द्रिय जीवों के विषय में समझना चाहिए । विशेष— स्थिति और संवेध अनुसार ( भिन्न) जानना चाहिए । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
शतक - २४ उद्देशक - २०
[८५६ ] भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों से यावत् देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! वे नैरयिकों से यावत् देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं । भगवन् ! यदि वे नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिको से आकर उत्पन्न होते हैं, अथवा यावत् वे अधः सप्तमपृथ्वी के नैरयिकों से ? गौतम ! वे रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों से, यावत् अधः सप्तमपृथ्वी के नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं । भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी का नैरयिक, कितने काल की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिकों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! जघन्य अन्तमुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की स्थिति ।
भगवन् ! वे जीव, एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? असुरकुमारों की वक्तव्यता समान कहनी चाहिए । विशेष यह है कि ( रत्नप्रभा नैरयिकों के ) संहनन में अनिष्ट और अकान्त पुद्गल यावत् परिणमन करते हैं । उनकी अवगाहना दो प्रकार की कही गई है - जो भवधारणीय अवगाहना है, वह जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट सात धनुष, तीन रत्नि और छह अंगुल की होती है । उत्तरवैक्रिय अवगाहना जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट पन्द्रह धनुष ढाई हाथ की होती है । भगवन् ! उन जीवों के शरीर किस संस्थान वाले होते हैं ?; गौतम ! उनके शरीर दो प्रकार के कहे गए हैं- भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । दोनों केवल हुण्डक-संस्थान वाले होते हैं । उनमें एक मात्र कापोतलेश्या होती है । चार समुद्घात होते हैं । वे केवल नपुंसकवेदी होते हैं । स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट एक सागरोपम की होती है । अनुबन्ध भी इसी प्रकार होता है । भव की अपेक्षा से - जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव तथा काल की अपेक्षा से - जघन्य अन्तमुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम ।
यदि वह (रत्नप्रभा - नैरयिक) जघन्य काल की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च में उत्पन्न होता है । शेष पूर्ववत् । विशेष यह है कि काल की अपेक्षा से पूर्वोक्त अनुसार और उत्कृष्ट चार अन्तमुहूर्त अधिक चार सागरोपम । इसी प्रकार शेष सात गमक, नैरयिक- उद्देशक के संज्ञी पंचेन्द्रियों अनुसार जानना चाहिए । बीच के तीन तथा अन्तिम तीन गमकों में स्थिति की विशेषता है । शेष पूर्ववत् । सर्वत्र स्थिति और संवेध उपयोगपूर्वक जान लेना ।
भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी का नैरयिक कितने काल की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है ? रत्नप्रभा के नौ गमक अनुसार नौ गमक कहना । विशेष यह है कि शरीर की अवगाहना, अवगाहना संस्थान पद के अनुसार जानना । उनमें तीन ज्ञान और तीन अज्ञान नियम से होते हैं । स्थिति और अनुबन्ध पहले कहा गया है । इस प्रकार नौ ही गमक उपयोग- पूर्वक कहना । इसी प्रकार यावत् छठी नरकपृथ्वी तक जानना । विशेष यह कि अवगाहना, लेश्या, स्थिति, अनुबन्ध और संवेध ( भिन्न-भिन्न ) जानना ।