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भगवती-२४/-/१२/८४७
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है । लेश्याएँ तीन होती हैं । वे मिथ्यादृष्टि होते हैं । उनमें दो अज्ञान होते हैं । काययोगी होते हैं । तीन समुद्घात होते हैं । स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त होती है । अध्यवसाय अप्रशस्त होते हैं और अनुबन्ध भी स्थिति के अनुसार होता है । अन्तिम तीन गमकों में प्रथम गमक के समान वक्तव्यता कहनी । परन्तु विशेष यह है कि स्थिति और अनुबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि का होता है ।
[८४८] (भगवन् !) यदि वे (पृथ्वीकायिक) मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं या असंज्ञी मनुष्यों से ? गौतम ! वे दोनों प्रकार के मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं । भगवन् ! असंज्ञी मनुष्य, कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? जघन्य काल की स्थिति वाले असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक अनुसार हैं, यहाँ भी औधिक तीन गमक सम्पूर्ण कहने चाहिए । शेष गमक नहीं कहने चाहिए । यदि वे संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं या असंख्यात वर्ष की ? गौतम ! वे संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं, असंख्यात से नहीं ।
भगवन् ! यदि वे संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या पर्याप्त संख्येय वर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्त से ? गौतम ! वे दोनों प्रकार के संख्येय वर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं । भगवन् ! संख्येय वर्षायुष्क पर्याप्त संज्ञी मनुष्य कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! जघन्य अन्तमुहूर्त की और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की । भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न । गौतम ! रत्नप्रभा में उत्पन्न होने योग्य मनुष्य के समान कहनी चाहिए । विशेष यह है कि उसके शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट पाँच सौ धनुष की होती है; स्थिति जघन्य अन्तमुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की होती है । अनुबन्ध भी इसी प्रकार जानना । संवेध - जैसे संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च का कहा है, वैसे ही यहाँ नौ ही गमकों में कहना चाहिए । बीच के तीन गमकों में संज्ञी पंचेन्द्रिय के मध्यम तीन गमकों समान कहना चाहिए । शेष पूर्ववत् । पिछले तीन गमकों का कथन इसी के प्रथम तीन औधिक गमकों के समान कहना चाहिए । विशेष यह है कि शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष की है; स्थिति और अनुबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि के होते हैं । शेष पूर्ववत् । विशेषता यह है कि पिछले तीन गमकों में संख्यात ही उत्पन्न होते हैं, असंख्यात नहीं ।
भगवन् ! यदि वे (पृथ्वीकायिक) देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या भवनवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, अथवा वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क या वैमानिक देवों से आकर ? गौतम ! वे भवनवासी यावत् वैमानिक देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं । भगवन् ! यदि वे भवनवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या वे असुरकुमार भवनवासी अथवा यावत् स्तनितकुमारभवनवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! वे असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार - भवनवासी देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं ।
भगवन् ! असुरकुमार कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! जघन्य अन्तमुहूर्त की और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की । भगवन् ! वे जीव एक