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________________ भगवती - १९/-/९/७७४ गौतम ! पांच प्रकार का - श्रोत्रेन्द्रियकरण यावत् स्पर्शेन्द्रियकरण । इसी प्रकार वैमानिकों तक जिसके जितनी इन्द्रियाँ हों उसके उतने इन्द्रियकरण कहने चाहिए । १८९ इसी प्रकार इसी क्रमसे चार प्रकार का भाषाकरण, चार प्रकार का मनःकरण, चार प्रकार का कषायकरण, सात प्रकार का समुद्घात करण, चार प्रकार का संज्ञाकरण, छह प्रकार का लेश्याकरण, तीन प्रकार का दृष्टिकरण और तीन प्रकार का वेद करण है । प्राणातिपातकरण कितने प्रकार का है ? भगवन् ! पांच प्रकार का - एकेन्द्रियप्राणातिपातकरण यावत् पंचेन्द्रियप्राणातिपातकरण । इस प्रकार वैमानिकों तक कहना । भगवन् ! पुद्गलकरण कितने प्रकार का है ? गौतम ! पांच प्रकार का - वर्णकरण, गन्धकरण, रसकरण, स्पर्शकरण और संस्थानकरण । भगववन् ! वर्णकरण कितने प्रकार का है ? गौतम ! पांच प्रकार का-कृष्णवर्णकरण यावत् शुक्लवर्णकरण । इसी प्रकार पुद्गलकरण के वर्णादि-भेद कहना यथादो प्रकार का गन्धकरण, पांच प्रकार का रस करण एवं आठ प्रकार का स्पर्शकरण । भगवन् ! संस्थानकरण कितने प्रकार का है ? पांच प्रकार का - परिमण्डलसंस्थानकरण यावत्आयतसंस्थानकरण | [ ७७५] द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव, शरीर, करण, इन्द्रियकरण, भाषा, मन, कषाय और समुद्घात । तथा [७७६] संज्ञा, लेश्या, दृष्टि, वेद, प्राणातिपातकरण, पुद्गलकरण, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, संस्थान इनका कथन इस उद्देशक में हैं । [७७७] 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवान् ! यह इसी प्रकार है' । शतक - १९ उद्देशक - १० [७७८] भगवन् ! क्या सभी वाणव्यन्तर देव समान आहार वाले होते हैं ? इत्यादि प्रश्न । ( गौतम !) सोलहवें शतक के द्वीपकुमारोद्देशक के अनुसार अल्पर्द्धिक - पर्यन्त जानना चाहिए । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है' | शतक - १९ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण शतक - २० [७७९] (इस शतक में दश उद्देशक हैं -) द्वीन्द्रिय, आकाश, प्राणवध, उपचय, परमाणु, अन्तर, बन्ध, भूमि, चारण और सोपक्रम जीव । शतक - २० उद्देशक - १ [७८०] 'भगवन् !' राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा-भगवन् ! क्या कदाचित् दो, तीन, चार या पांच द्वीन्द्रिय जीव मिलकर एक साधारण शरीर बांधते हैं, इसके पश्चात् आहार करते हैं ? अथवा आहार को परिणमाते हैं, फिर विशिष्ट शरीर को बांधते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि द्वीन्द्रिय जीव पृथक्-पृथक् आहार करने वाले और उसका पृथक्-पृथक् परिणमन करने वाले होते हैं । इसलिए वे पृथक्-पृथक् शरीर बांधते हैं, फिर आहार करते हैं तथा उसका परिणमन करते हैं और विशिष्ट शरीर बांधते हैं । भगवन् ! उन जीवों के कितनी लेश्याएं हैं ? गौतम ! तीन यथा कृष्णलेश्या, नीललेश्या
SR No.009782
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size18 MB
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