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भगवती-१८/-/१०/७५६
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यदि वे मेरे इन और ऐसे अर्थों यावत् प्रश्नों का यथार्थ उत्तर देंगे तो मैं उन्हें वन्दन-नमस्कार करूंगा, यावत् उनकी पर्युपासना करूंगा । यदि वे मेरे इन और ऐसे अर्थों और प्रश्नों के उत्तर नहीं दे सकेंगे तो मैं उन्हें इन्हीं अर्थों और उत्तरों से निरुत्तर कर दूंगा ।' ऐसा विचार किया । तत्पश्चात् उसने स्नान किया, यावत् शरीर को वस्त्र और सभी अलंकारों से विभूषित किया । फिर वह अपने घर से निकला और अपने एक सौ शिष्यों के साथ पैदल चल कर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ उनके पास आया और न अतिदूर, न अतिनिकट खड़े होकर उसने उनसे इस प्रकार पूछा
भंते ! आपके (धर्म में) यात्रा, यापनीय, अव्याबाध और प्रासुकविहार है ? सोमिल ! मेरे (धर्म में) यात्रा भी है, यापनीय भी है, अव्याबाध भी है और प्रासुकविहार भी है । भंते! आपके यहाँ यात्रा कैसी है ? सोमिल ! तप, नियम, संयम, स्वाध्याय, ध्यान और आवश्यक आदि योगों में जो मेरी यतना है, वही मेरी यात्रा है ।
भगवन् ! आपके यापनीय क्या है ? सोमिल ! दो प्रकार का है । इन्द्रिय-यापनीय और नो-इन्द्रिययापनीय । भगवन् ! वह इन्द्रिय-यापनीय क्या है ? सोमिल ! श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय, ये पांचों इन्द्रियाँ निरुपहत और वश में हैं, यह मेरा इन्द्रिययापनीय है । भंते ! वह नोइन्द्रिय-यापनीय क्या है ? सोमिल ! जो मेरे क्रोध, मान, माया
और लोभ ये चारों कषाय व्युच्छिन्न हो गए हैं; और उदयप्राप्त नहीं हैं, यह मेरा नोइन्द्रिय-यापनीय है । इस प्रकार मेरे ये यापनीय हैं ।
भगवन् ! आपके अव्याबाध क्या है ? सोमिल ! मेरे वातज, पित्तज, कफज और सन्निपातजन्य तथा अनेक प्रकार के शरीर सम्बन्धी रोग, आतंक एवं शरीरगत दोष उपशान्त हो गए हैं, वे उदय में नहीं आते । यही मेरा अव्याबाध है । भगवन् ! आपके प्रासुकविहार कौनसा है ? सोमिल ! आराम, उद्यान, देवकुल, सभा और प्रपा आदि स्थानों में स्त्री-पशु-नपुंसकवर्जित वसतियों में प्रासुक, एषणीय पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक आदि स्वीकार करके मैं विचरता हूँ, यही मेरा प्रासुकविहार है ।।
भगवन् ! आपके लिए ‘सरिसव' भक्ष्य हैं या अभक्ष्य ? सोमिल ! भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं । भगवन् ! यह आप कैसे कहते हैं ? सोमिल ! तुम्हारे ब्राह्मण नयों में दो प्रकार के ‘सरिसव' कहे गए हैं, यथा-मित्र-सरिसव और धान्य-सरिसव । जो मित्र-सरिसव हैं, वह तीन प्रकार के हैं, यथा-सहजात, सहवर्धित और सहपांशुक्रीडित । ये तीनों श्रमणों निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं । जो धान्यसरिसव हैं, वह भी दो प्रकार के हैं, यथा-शस्त्रपरिणत और अशस्त्रपरिणत । जो अशस्त्रपरिणत हैं, वे श्रमणनिर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं । जो शस्त्रपरिणत हैं, वह भी दो प्रकार के हैं, यथा-एषणीय और अनेषणीय । अनेषणीय सरिसव तो श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं । एषणीय सरिसव दो प्रकार के हैं, यथा-याचित और अयाचित । अयाचित श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं । याचित भी दो प्रकार के हैं, यथा-लब्ध और अलब्ध । अलब्ध श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं और जो लब्ध हैं, वह श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए भक्ष्य हैं । इस कारण से, ऐसा कहा गया है कि-'सरिसव' मेरे लिए भक्ष्य भी हैं, और अभक्ष्य भी हैं ।
भगवन् ! आपके मत में 'मास' भक्ष्य है या अभक्ष्य है ? सोमिल ! 'मास' भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है । भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं ? सोमिल ! तुम्हारे ब्राह्मण-नयों में 'मास' दो