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भगवती-१८/-/१/७२५
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उस भाव की अपेक्षा 'चरम' होता है । [७२६] 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'।
| शतक-१८ उद्देशक-२ [७२७] उस काल एवं उस समय में विशाखा नाम की नगरी थी । वहाँ बहपुत्रिक नामक चैत्य था । (वर्णन) एक बार वहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का पदार्पण हुआ, यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी । उस काल और उस यम में देवेन्द्र देवराज शक्र, वज्रपाणि, पुरन्दर इत्यादि सोलहवें शतक के द्वितीय उद्देशक में शकेन्द्र का जैसा वर्णन है, उस प्रकार से यावत् वह दिव्य यानविमान में बैठ कर वहाँ आया । विशेष बात यह भी, यहाँ आभियोगिक देव भी साथ थे; यावत् शकेन्द्र ने बत्तीस प्रकार की नाट्य-विधि प्रदर्शित की । तत्पश्चात् वह जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया ।
भगवान् गौतम ने, श्रमण भगवान् महावीर से पूछा-जिस प्रकार तृतीय शतक में ईशानेन्द्र के वर्णन में कूटागारशाला के दृष्टान्त के विषय में तथा पूर्वभव के सम्बन्ध में प्रश्न किया है, उसी प्रकार यहाँ भी; यावत् 'यह वृद्धि कैसे सम्प्राप्त हुई',-तक (प्रश्न करना चाहिए 1) श्रमण भगवान् महावीर ने, कहा-हे गौतम ! ऐसा है कि उस काल और उस समय इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में हस्तिनापुर नामक नगर था । वहाँ सहस्राम्रवन नामक उद्यान था । (वर्णन) । उस हस्तिनापुर नगर में कार्तिक नाम का एक श्रेष्ठी रहता था । जो धनाढ्य यावत् किसी से पराभाव न पाने वाला था । उसे वणिकों में अग्रस्थान प्राप्त था । वह उन एक हजार आठ व्यापरियों के बहुत से कार्यों में, कारणों में और कौटम्बिक व्यवहारों में पूछने योग्य था, जिस प्रकार राजप्रश्नीय सूत्र में चित्त सारथि का वर्णन है, उसी प्रकार यहाँ भी, यावत् चक्षुभूत था, यहाँ तक जानना चाहिए । वह कार्तिक श्रेष्ठी, एक हजार आठ व्यापारियों का आधिपत्य करता हुआ, यावत् पालन करता हुआ रहता था । वह जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता-यावत् श्रमणोपासक था ।
. उस काल उस समय धर्म की आदि करने वाले अर्हत् श्री मुनिसुव्रत तीर्थंकर वहां पधारे; यावत् समवसरण लगा । यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी । उसके पश्चात् वह कार्तिक श्रेष्ठी भगवान् के पदार्पण का वृत्तान्त सुन कर हर्षित और सन्तुष्ट हुआ; इत्यादि । जिस प्रकार ग्यारहवें शतक में सुदर्शन-श्रेष्ठी का वन्दनार्थ निर्गमन का वर्णन है, उसी प्रकार वह भी वन्दन के लिए निकला, यावत् पर्युपासना करने लगा । तदनन्तर तीर्थंकर मुनिसुव्रत अर्हत् ने कार्तिक सेठ को धर्मकथा कही; यावत् परिषद् लौट गई । कार्तिक सेठ, भगवान् मुनिसुव्रतस्वामी से धर्म सुन कर यावत् अवधारण करके अत्यन्त हृष्ट-तुष्ट हुआ, फिर उसने खड़े होकर यावत् सविनय इस प्रकार कहा-'भगवन् ! जैसा आपने कहा वैसा ही यावत् है । हे देवानुप्रिय प्रभो ! विशेष यह कहना है, मैं एक हजार आठ व्यापारी मित्रों से पूछंगा और अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौपूंगा
और तब मैं आप देवानुप्रिय के पास प्रव्रजित होऊंगा । (भगवान्-) देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो, वैसा करो, किन्तु विलम्ब मत करो ।।
तदनन्तर वह कार्तिक श्रेष्ठी यावत् निकला और वहाँ से हस्तिनापुर नगर में जहाँ अपना घर था वहाँ आया । फिर उसने उन एक हजार आठ व्यापारी मित्रों को बुला कर इस प्रकार कहा'हे देवानुप्रियो ! बात ऐसी है कि मैंने अर्हन्त भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी से धर्म सुना है । वह धर्म