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भगवती -१/-/३/३५
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किया है । भगवन् ! क्या वह देश से देशकृत है ?' पूर्वोक्त प्रश्न वैमानिक तक करना । इस प्रकार 'कहते हैं' यह आलापक भी यावत् वैमानिकपर्यन्त कहना चाहिए ।
इसी प्रकार 'करते हैं' यह आलापक भी यावत् वैमानिकपर्यन्त कहना चाहिए । इसी प्रकार 'करेंगे' यह आलापक भी यावत् वैमानिकपर्यन्त कहना चाहिए । इसी प्रकार चित किया, चय करते हैं, चय करेंगे; उपचित - उपचय किया, उपचय करते हैं, उपचय करेंगे; उदीरणा की, उदीरणा करते हैं, उदीरणा करेंगे; वेदन किया, वेदन करते हैं, वेदन करेंगे; निर्जीर्ण किया, निर्जीर्ण करते हैं, निर्जीर्ण करेंगे; इन सब पदों का चौबीस ही दण्डकों के सम्बन्ध में पूर्ववत् कथन करना चाहिए ।
[३६] कृत, चित, उपचित, उदीर्ण, वेदित और निर्जीर्ण; इतने अभिलाप यहां कहने हैं । इनमें से कृत, चित और उपचित में एक-एक के चार-चार भेद हैं; अर्थात् - सामान्य क्रिया, भूतकाल की क्रिया, वर्तमान काल की क्रिया और भविष्यकाल की क्रिया पिछले तीन पदों में सिर्फ तीन काल की क्रिया कहनी है ।
[३७] 'भगवन् ! क्या जीव कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं ? हाँ गौतम ! वेदन करते हैं । 'भगवन् ! जीव कांक्षामोहनीय कर्म को किस प्रकार वेदते हैं ?' गौतम ! उन-उन (अमुक-अमुक) कारणों से शंकायुक्त, कांक्षायुक्त, विचिकित्सायुक्त, भेदसमापन्न एवं कलुषसमापन्न होकर इस प्रकार जीव कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं ।
[३८] 'भगवन् ! क्या वही सत्य और निःशंक है, जो जिन-भगवन्तों ने निरूपित किया है ।' हाँ, गौतम ! वही सत्य और निःशंक है, जो जिनेन्द्रों द्वारा निरूपित है । [३९] 'भगवन् ! (वही सत्य और निःशंक है, जो जिनेन्द्रों द्वारा प्ररूपित है) इस प्रकार मन में धारण ( निश्चय) करता हुआ, उसी तरह आचरण करता हुआ, यों रहता हुआ, इसी तरह संवर करता हुआ जीव क्या आज्ञा का आराधक होता है ?' हाँ, गौतम ! इसी प्रकार मन में निश्चय करता हुआ यावत आज्ञा का आराधक होता है ।
[४०] भगवन् ! क्या अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है, तथा नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है ? हाँ, गौतम ! अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है और नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है । 'भगवन् ! वह जो अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है और नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है, सो क्या वह प्रयोग ( जीव के व्यापार) से परिणत होता है अथवा स्वभाव से (विश्रसा) ?' गौतम ! वह प्रयोग से भी परिणत होता है और स्वभाव से भी परिणत होता है
'भगवन् ! जैसे आपके मत से अस्तित्व, अस्तित्व में परिणत होता है, उसी प्रकार नास्तित्व, नास्तित्व में परिणत होता है ? और जैसे आपके मत से नास्तित्व, नास्तित्व में परिणत होता है, उसी प्रकार अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है ?' गौतम ! जैसे मेरे मत से अस्तित्व, अस्तित्व में परिणत होता है, उसी प्रकार नास्तित्व, नास्तित्व में परिणत होता है और जिस प्रकार मेरे मत से नास्तित्व, नास्तित्व में परिणत होता है; उसी प्रकार अस्तित्व, अस्तित्व में परिणत होता है ।
'भगवन् ! क्या अस्तित्व, अस्तित्व में गमनीय है ?" हे गौतम! जैसे- 'परिणत होता है', इस पद के आलापक कहे हैं; उसी प्रकार यहाँ 'गमनीय' पद के साथ भी दो आलापक