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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
में से हो कर जा सकता है ? गौतम ! पूर्वोक्त प्रकार से देव के साथ देवी का भी दण्डक वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए ।
भगवन् ! अल्प-कृद्धिक देवी, महर्द्धिक देव के मध्य में से हो कर जा सकती है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । इस प्रकार यहाँ भी यह तीसरा दण्डक कहना चाहिए यावतभगवन् ! महर्द्धिक वैमानिक देवी, अल्प-ऋद्धिक वैमानिक देव के बीच में से होकर जा सकती है ? हाँ, गौतम ! जा सकती है । भगवन् ! अल्प-कृद्धिक देवी महर्द्धिक देवी के मध्य में से होकर जा सकती है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । इसी प्रकार सम-ऋद्धिक देवी का सम-कृद्धिक के साथ पूर्ववत् आलापक कहना चाहिए । महर्द्धिक देवी का अल्प-ऋद्धिक देवी के साथ आलापक कहना चाहिए ।
. इसी प्रकार एक-एक के तीन-तीन आलापक कहने चाहिए; यावत्-भगवन् ! वैमानिक महर्द्धिक देवी, अल्प-ऋद्धिक वैमानिक देवी के मध्य में होकर जा सकती है ? हाँ गौतम ! जा सकती है; यावत्-क्या वह महर्द्धिक देवी, उसे विमोहित करके जा सकती है या विमोहित किए बिना भी जा सकती है ? तथा पहले विमोहित करके बाद में जाती है, अथवा पहले जा कर बाद में विमोहित करती है ? हे गौतम ! पूर्वोक्त रूप से कि पहले जाती है और पीछे भी विमोहित करती है; तक कहना चाहिए । इस प्रकार के चार दण्डक कहने चाहिए ।
[४८३] भगवान् ! दौड़ता हुआ घोड़ा 'खु-खु' शब्द क्यों करता है ? गौतम ! जब घोड़ा दौड़ता है तो उसके हृदय और यकृत् के बीच में कर्कट नामक वायु उत्पन्न होती है, इससे दौड़ता हुआ घोड़ा 'खु-खु' शब्द करता है ।
[४८४] इन बारह प्रकार की भाषाओं में हम आश्रय करेंगे, शयन करेंगे, खड़े रहेंगे, बैठेंगे और लेटेंगे' इत्यादि भाषण करना क्या प्रज्ञापनी भाषा कहलाती है और ऐसा भाषा मृषा नहीं कहलाती है ? हाँ, गौतम ! यह आश्रय करेंगे, इत्यादि भाषा प्रज्ञापनी भाषा है, यह भाषा मृषा नहीं है । हे, भगवान् ! यह इसी प्रकार है, यह इसी प्रकार है !
[४८५] आमंत्रणी, आज्ञापनी, याचनी, पृच्छनी, प्रज्ञापनी, प्रत्याख्यानी, इच्छानुलोमा । [४८६] अनभिगृहीता, अभिगृहीता, संशयकरणी, व्याकृता और अव्याकृता ।
| शतक-१० उद्देशक-४ | [४८७] उस काल और उस समय में वाणिज्यग्राम नामक नगर था (वर्णन) वहाँ द्युतिपलाश नामक उद्यान था । वहाँ श्रमण भगवान् महावीर का समवसरण हुआ यावत् परिषद् आई और वापस लौट गई । उस काल और उस समय में, श्रमण भगवान महावीरस्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नामक अनगार थे । वे ऊर्ध्वजानु यावत् विचरण करते थे । उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के एक अन्तेवासी थे-श्यामहस्ती नामक अनगार । वे प्रकृतिभद्र, प्रकृतिविनीत, यावत् रोह अनगार के समान ऊर्ध्वजानु, यावत् विचरण करते थे । एक दिन उन श्यामहस्ती नामक अनगार को श्रद्धा, यावत् अपने स्थान से छे और उठ कर जहाँ भगवान् गौतम विराजमान थे, वहाँ आए । भगवान् गौतम के पास आकर वन्दना-नमस्कार कर यावत् पर्युपासना करते हुए इस प्रकार पूछने लगे
भगवन् ! क्या असुरकुमारों के राजा, असुरकुमारों के इन्द्र चमर के त्रायस्त्रिंशक देव