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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
के कारण, कर्मों के भारीपन से, कर्मों के अत्यन्त गुरुत्व और भारीपन से, अशुभ कर्मों के उदय से, अशुभ कर्मों के विपाक से तथा अशुभ कर्मों के फलपरिपाक से नैरयिक, नैरयिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते । भंते ! असुरकुमार, असुरकुमारों में स्वयं उत्पन्न होते हैं या अस्वयं ? इत्यादि पृच्छा । गांगेय ! असुरकुमार असुरकुमारों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते । भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है कि यावत् अस्वयं उत्पन्न नहीं होते ? हे गांगेय ! कर्म के उदय, से, कर्म के अभाव से, कर्म की विशोधि से, कर्मों की विशुद्धि से, शुभ कर्मों के उदय से, शुभ कर्मों के विपाक से, शुभ कर्मों के फलविपाक से असुरकुमार, असुरकुमारों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते । इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक जानना चाहिए । भगवन् ! क्या पृथ्वीकायिक, पृथ्वीकायिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, या अस्वयं उत्पन्न होते हैं ? गांगेय ! पृथ्वीकायिक, पृथ्वीकायिकों में स्वयं यावत् उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते हैं । भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि पृथ्वीकायिक स्वयं उत्पन्न होते हैं, इत्यादि ? गांगेय ! कर्म के उदय से, कर्मों की गुरुता से, कर्म के भारीपन से, कर्म के अत्यन्त गुरुत्व और भारीपन से, शुभाशुभ कर्मों के उदय से, शुभाशुभ कर्मों के विपाक से, शुभाशुभ कर्मों के फल-विपाक से पृथ्वीकायिक, पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते । इसी प्रकार यावत् मनुष्य तक जानना चाहिए । असुरकुमारों के वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में भी जानना । इसी कारण हे गांगेय ! मैं ऐसा कहता हूँ कि यावत् वैमानिक, वैमानिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते ।
[४५९] तब से गांगेय अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर को सर्वज्ञ और सर्वदर्शी के रूप में पहचाना । गांगेय अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की, वन्दन नमस्कार किया । उसके बाद कहा-भगवन् ! मैं आपके पास चातुर्यामरूप धर्म के बदले पंचमहाव्रतरूप धर्म को अंगीकार करना चाहता हूँ । इस प्रकार सारा वर्णन प्रथम शतक के नौवें उद्देशक में कथित कालस्यवेषिकपुत्र अनगार के समान जानना चाहिए, यावत् सर्वदुःखों से रहित बने । हे भगवन् यह इसी प्रकार है ।
| शतक-९ उद्देशक-३३ [४६०] उस काल और उस समय में ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक नगर था । वहाँ बहुशाल नामक चैत्य था । उस ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर में कृषभदत्त नाम का ब्राह्मण रहता था । वह आढ्य, दीप्त, प्रसिद्ध, यावत् अपरिभूत था । वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वणवेद में निपुण था । स्कन्दक तापस की तरह वह भी ब्राह्मणों के अन्य बहुत से नयों में निष्णात था । वह श्रमणों का उपासक, जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता, पुण्य-पाप के तत्त्व को उपलब्ध, यावत् आत्मा को भावित करता हुआ विहरण करता था । उस ऋषभदत्त ब्राह्मण की देवानन्दा नाम की ब्राह्मणी (धर्मपत्नी) थी । उसके हाथ-पैर सुकुमाल थे, यावत् उसका दर्शन भी प्रिय था । उसका रूप सुन्दर था । वह श्रमणोपासिका थी, जीव-अजीव आदि तत्त्वों की जानकार थी तथा पुण्य-पाप के रहस्य को उपलब्ध की हुई थी, यावत् विहरण करती थी ।
उस काल और उस समय में महावीर स्वामी वहाँ पधारे । समवसरण लगा । परिषद्