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________________ २४४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद होता है और कोई जीव संवृत नहीं होता है । इसी प्रकार कोई जीव आभिनिबोधिकज्ञान का उपार्जन करता है और कोई उपार्जन नहीं करता है । कोई जीव यावत् मनः पर्यवज्ञान का उपार्जन करता है और कोई नहीं करता है । कोई जीव केवलज्ञान का उपार्जन करता है और कोई नहीं करता है । भगवन् ! इस कथन का क्या कारण है कि कोई जीव केवलिप्ररूपित धर्मश्रमण-लाभ करता है, यावत् केवलज्ञान का नहीं करता है ? गौतम ! जिस जीव नेज्ञानावरणीयकर्म का क्षयोपशम नहीं किया, दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं किया, धर्मान्तरायिककर्मका, चारित्रावरणीयकर्मका, यतनावरणीयकर्मका, अध्यवसानावरणीयकर्मका, आभिनिबोधिकज्ञानावरणीयकर्मका, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय और मनःपर्यवज्ञानावरणीयकर्मका क्षयोपसम नहीं किया तथा केवल ज्ञानावरणीयकर्म का क्षय नहीं किया, वे जीव केवली आदि से धर्मश्रमण किये विना धर्म-श्रवणलाभ नहीं पाते, शुद्धबोधिकलाभ का अनुभव नहीं करते, यावत् केवलज्ञान को उत्पन्न नहीं कर पाते । किन्तु जिस जीव ने ज्ञानावरणीयकर्मों का, दर्शनावरणीयकर्मों का, धर्मान्तरायिककर्मों का यावत् केवलज्ञानावरणीयकर्मों का क्षय किया है, वह केवली आदि से धर्मश्रवण किये विना ही केवलिप्ररूपति धर्म-श्रवण लाभ प्राप्त करता है, शुद्ध बोधिलाभ का अनुभव करता है, यावत् केवलज्ञान को उपार्जित कर लेता है । [४४६] निरन्तर छठ-छठ का तपःकर्म करते हुए सूर्य के सम्मुख बाहें ऊँची करके आतापनाभूमि में आतापना लेते हुए उस जीव की प्रकृति-भद्रता से, प्रकृति की उपशान्तता से स्वाभाविक रूप से ही क्रोध, मान, माया और लोभ की अत्यन्त मन्दता होने से, अत्यन्त मृदुत्वसम्पन्नता से, कामभोगों में अनासक्ति से, भद्रता और विनीतता से तथा किसी समय शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम, विशुद्ध लेश्या एवं तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए 'विभंग' नामक अज्ञान उत्पन्न होता है । फिर वह उस उत्पन्न हुए विभंगज्ञान द्वारा जघन्य अंगुल के असख्यातवें भाग और उत्कृष्ट असंख्यात हजार योजन तक जानता और देखता है , वह जीवों को भी जानता है और अजीवों को भी जानता है । वह पाषण्डस्थ, सारम्भी, सपरिग्रह और संक्लेश पाते हुए जीवों को भी जानता है और विशुद्ध होते हुए जीवों को भी जानता है । (तत्पश्चात्) वह सर्वप्रथम सम्यक्त्व प्राप्त करता है, फिर श्रमणधर्म पर रुचि करता है, फिर चारित्र अंगीकार करता है । फिर लिंग स्वीकार करता है । तब उस के मिथ्यात्व के पर्याय क्रमशः क्षीण होते-होते और सम्यग्दर्शन के पर्याय क्रमशः बढ़ते-बढ़ते वह 'विभंग' नामक अज्ञान, सम्यक्त्व-युक्त होता है और शीघ्र ही अवधि (ज्ञान) के रूप में परिवर्तित हो जाता है । [४४७] भगवन् ! वह अवधिज्ञानी कितनी लेश्याओं में होता है ? गौतम ! वह तीन विशुद्धलेश्याओं में होता है, यथा-तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या । भगवन् ! वह अवधिज्ञानी कितने ज्ञानों में होता है ? गौतम ! वह आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान, इन तीन ज्ञानों में होता है । भगवन् ! वह सयोगी होता है, या अयोगी ? गौतम ! वह सयोगी होता है, अयोगी नहीं होता । भगवन् ! यदि वह सयोगी होता है, तो क्या मनोयोगी होता है, वचनयोगी होता है या काययोगी होता है ? गौतम ! तीनो होते है । भगवन् ! वह साकारोपयोग-युक्त होता है, अथवा अनाकारोपयोग-युक्त होता है ?
SR No.009781
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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