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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
अल्पतर पापकर्म होता है । भगवन् ! तथारूप असंयत, अविरत, पापकर्मों का जिसने निरोध और प्रत्याख्यान नहीं किया; उसे प्रासुक या अप्रासुक, एषणीय या अनेषणीय अशन-पानादि द्वारा प्रतिलाभित करते हुए श्रमणोपासक को क्या फल प्राप्त होता है ? गौतम ! उसे एकान्त पापकर्म होता है, किसी प्रकार की निर्जरा नहीं होती ।
[४०६] गृहस्थ के घर में आहार ग्रहण करने की बुद्धि से प्रविष्ट निर्ग्रन्थ को कोई गृहस्थ दो पिण्ड ग्रहण करने के लिए उपनिमंत्रण करे-'आयुष्मन श्रमण ! इन दो पिण्डों में से एक पिण्ड आप स्वयं खाना और दूसरा पिण्ड स्थविर मुनियों को देना । वह निर्ग्रन्थ श्रमण उन दोनों पिण्डों को ग्रहण कर ले और स्थविरों की गवेषणा करे । गवेषणा करने पर उन स्थविर मुनियों को जहाँ देखे, वहीं वह पिण्ड उन्हें दे दे । यदि गवेषणा करने पर भी स्थविरमुनि कहीं न दिखाई दें तो वह पिण्ड स्वयं न खाए और न ही दूसरे किसी श्रमण को दे, किन्तु एकान्त, अनापात, अचित्त या बहुप्रासुक स्थण्डिल भूमि का प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करके वहाँ परिष्ठापन करे । गृहस्थ के घर में आहार ग्रहण करने के विचार से प्रविष्ट निर्ग्रन्थ को कोई गृहस्थ तीन पिण्ड ग्रहण करने के लिए उपनिमंत्रण करे-‘आयुष्मन् श्रमण ! एक पिण्ड आप स्वयं खाना और दो पिण्ड स्थविर श्रमणों को देना ।' वह निर्ग्रन्थ उन तीनों पिण्डों को ग्रहण कर ले । तत्पश्चात् वह स्थविरों की गवेषणा करे । शेष वर्णन पूर्ववत् । यावत् स्वयं न खाए, परिष्ठापन करे । गृहस्थ के घर में प्रविष्ट निर्ग्रन्थ को यावत् दस पिण्डों को ग्रहण करने के लिए कोई गृहस्थ उपनिमंत्रण दे–'आयुष्मन् श्रमण ! इनमें से एक पिण्ड आप स्वयं खाना और शेष नौ पिण्ड स्थविरों को देना;' इत्यादि वर्णन पूर्ववत् ।
निर्ग्रन्थ यावत् गृहपति-कुल में प्रवेश करे और कोई गृहस्थ उसे दो पात्र ग्रहण करने के लिए उपनिमंत्रण करे-'आयुष्मन् श्रमण ! एक पात्र का आप स्वयं उपयोग करना और दूसरा पात्र स्थविरों को दे देना ।' इस पर वह निर्ग्रन्थ उन दोनों पात्रों को ग्रहण कर ले । शेष वर्णन पूर्ववत् यावत् उस पात्र का न तो स्वयं उपयोग करे और न दूसरे साधुओं को दे; यावत् उसे परठ दे । इसी प्रकार तीन, चार यावत् दस पात्र तक का कथन पूर्वोक्त पिण्ड के समान कहना । पात्र के समान सम्बन्ध गुच्छक, रजोहरण, चोलपट्टक, कम्बल, लाठी, (दण्ड)
और संस्तारक की वक्तव्यता कहना, यावत् दस संस्तारक ग्रहण करने के लिए उपनिमंत्रण करे, यावत् परठ दे ।
[४०७] गृहस्थ के घर आहार ग्रहण करने की बुद्धि से प्रविष्ट निर्ग्रन्थ द्वारा किसी अकृत्य स्थान का प्रतिसेवन हो गया हो और तत्क्षण उसके मन में ऐसा विचार हो कि प्रथम मैं यहीं इस अकृत्यस्थान की आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा और गर्दा करू; (उसके अनुबन्ध का) छेदन करूं, इस (पाप-दोष से) विशुद्ध बनें, पुनः ऐसा अकृत्य न करने के लिए अभ्युद्यत होऊँ और यथोचित प्रायश्चित्तरूप तपःकर्म स्वीकार कर लूँ । तत्पश्चात् स्थविरों के पास जाकर आलोचना करूंगा, यावत् प्रायश्चितरूप तपःकर्म स्वीकार कर लूंगा, (ऐसा सोच के) वह निर्ग्रन्थ, स्थविरमुनियों के पास जाने के लिए खाना हुआ; किन्तु स्थविरमुनियों के पास पहुँचने से पहले ही वे स्थविर मूक हो जाएँ तो हे भगवन् ! वह निर्ग्रन्थ आराधक है या विराधक ? गौतम ! वह (निर्ग्रन्थ) आराधक है, विराधक नहीं । यावत् उनके पास पहुँचने से पूर्व ही वह निर्ग्रन्थ स्वयं मूक हो जाए, तो हे भगवन ! वह निर्ग्रन्थ आराधक है या विराधक ? गौतम !