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भगवती-३/-/३/१८२
भगवन् ! अप्रमत्तसंयम में प्रवर्त्तमान अप्रमत्तसंयम का सब मिला कर अप्रमत्तसंयमकाल कितना होता है ? मण्डितपुत्र ! एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि- होता है । अनेक जीवों की अपेक्षा सर्वकाल होता है ।
'हे भगवन् ! यह, इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है !' यों कह कर भगवान् मण्डितपुत्र अनगार और विचरण करने लगे ।
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[१८३] गौतमस्वामी ने श्रमण भगवान् महावीरस्वामी को वन्दन - नमस्कार करके पूछा'भगवन् ! लवणसमुद्र; चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णमासी; इन चार तिथियों में क्यों अधिक बढ़ता या घटता है ? हे गौतम ! जीवाभिगमसूत्र में लवणसमुद्र के सम्बन्ध में जैसा कहा है, वैसा यावत् 'लोकस्थिति' से 'लोकानुभाव' शब्द तक कहना चाहिए । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं' ।
शतक - ३ उद्देशक-४
[१८४] भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, वैक्रिय समुद्घात से समवहत हुए और यानरूप से जाते हुए देव को जानता देखता है ? गौतम ! (१) कोई ( भावितात्मा अनगार) देव को तो देखता है, किन्तु यान को नहीं देखता; (२) कोई यान को देखता है, किन्तु देव को नहीं देखता; (३) कोई देव को भी देखता है और यान को भी देखता है; (४) कोई न देव को देखता है और न यान को देखता है ।
भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, वैक्रिय समुद्घात से समवहत हुई और यानरूप से जाती हुई देवी को जानता देखता है ? गौतम ! जैसा देव के विषय में कहा, वैसा ही देवी के विषय में भी जानना चाहिए । भगवन् ! भावितात्मा अनगार, वैक्रिय समुद्घात से समवहत तथा यानरूप से जाते हुए, देवीसहित देव को जानता देखता है ? गौतम ! कोई देवीसहित देव को तो देखता है, किन्तु यान को नहीं देखता; इत्यादि चार भंग पूर्ववत् जानना ।
भगवन् ! भावितात्मा अनगार क्या वृक्ष के आन्तरिक भाग को ( भी ) देखता है अथवा बाह्य भाग को देखता है ? ( हे गौतम !) यहाँ भी पूर्वोक्त प्रकार से चार भंग कहना । इसी तरह पृच्छा की क्या वह मूल को देखता है, (अथवा ) कन्द को (भी) देखता है ? तथा क्या वह मूल को देखता है, अथवा स्कन्ध को (भी) देखता है ? हे गौतम ! चार-चार भंग पूर्ववत् कहने चाहिए । इसी प्रकार मूल के साथ बीज के चार भंग कहने चाहिए । तथा कन्द के साथ यावत् बीज तक का संयोजन कर लेना चाहिए । इसी तरह यावत् पुष्प के साथ बीज का संयोजन कर लेना चाहिए ।
भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार वृक्ष के फल को देखता है, अथवा बीज को ( भी ) देखता है ? गौतम ! (यहाँ भी पूर्वोक्त प्रकार से) चार भंग कहने चाहिए ।
[१८५] भगवन् ! क्या वायुकाय एक बड़ा स्त्रीरूप, पुरुषरूप, हस्तिरूप, यानरूप, तथा युग्य, गिल्ली, थिल्ली, शिविका, स्यन्दमानिका, इन सबके रूपों की विकुर्वणा कर सकता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । किन्तु वायुकाय एक बड़ी पताका के आकार के रूप की विकुर्वणा कर सकता है । भगवन् ! क्या वायुकाय एक बड़ी पताका के आकार की विकुर्वणा करके अनेक योजन तक गमन करने में समर्थ है ?