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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
यहाँ मौजूद हूँ ।' 'अतः हे देवानुप्रियो ! हम सब चलें और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दननमस्कार करें, यावत् उनकी पर्युपासना करें ।'
यों विचार करके वह चमरेन्द्र अपने चौसठ हजार सामानिक देवों के साथ, यावत् सर्वकृद्धि-पूर्वक यावत् उस श्रेष्ठ अशोक वृक्ष के नीचे, जहाँ मैं था, वहाँ मेरे समीप आया । तीन वार दाहिनी ओर से मेरी प्रदक्षिणा की । यावत् वन्दना-नमस्कार करके बोला-'हे भगवन् !
आपका आश्रय ले कर मैं स्वयमेव देवेन्द्र देवराज शक्र को, उसकी शोभा से नष्टभ्रष्ट करने के लिए गया था, यावत् आप देवानुप्रिय का भला हो, कि जिनके प्रभाव से मैं क्लेशरहित होकर यावत् विचरण कर रहा हूँ । अतः हे देवानुप्रिय ! मैं आपसे क्षमा मांगता हूँ ।' यावत् ईशानकोण में चला गया । फिर यावत् उसने बत्तीस-विधा से सम्बद्ध नाट्यविधि दिखलाई । फिर वह जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में वापस लौट गया । हे गौतम ! इस प्रकार से असुरेन्द्र असुरराज चमर को वह दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवधुति एवं दिव्य देवप्रभाव उपलब्ध हुआ है, प्राप्त हुआ है और अभिसमन्वागत हुआ है । चमरेन्द्र की स्थिति एक सागरोपम की है और वह वहाँ से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा, यावत् समस्त दुःखों का अन्त करेगा ।
[१७७] भगवन् ! असुरकुमार देव यावत् सौधर्मकल्प तक ऊपर किस कारण से जाते हैं ? गौतम ! (देवलोक में) तत्काल उत्पन्न तथा चरमभवस्थ उन देवों को इस प्रकार का, इस रूप का आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न होता है-अहो ! हमने दिव्य देवऋद्धि यावत् उपलब्ध की है, प्राप्त की है, अभिसमन्वागत की है । जैसी दिव्य देवकृद्धि हमने यावत् उपलब्ध की है, यावत् अभिसमन्वागत की है, वैसी ही दिव्य देव-ऋद्धि यावत् देवेन्द्र देवराज शक्र ने उपलब्ध की है यावत् अभिसमन्वागत की है, (इसी प्रकार) जैसी दिव्य देवऋद्धि यावत् देवेन्द्र देवराज शक्र ने उपलब्ध की है यावत् अभिसमन्वागत की है, वैसी ही दिव्य देवकृद्धि यावत् हमने भी उपलब्ध यावत् अभिसमन्वागत की है । अतः हम जाएँ और देवेन्द्र देवराज शक्र के निकट (सम्मुख) प्रकट हों एवं देवेन्द्र देवराज शक्र द्वारा प्राप्त यावत् अभिसमन्वागत उस दिव्य देवकृद्धि यावत् दिव्य देवप्रभाव को देखें; तथा हमारे द्वारा लब्ध, प्राप्त एवं अभिसमन्वागत उस दिव्य देवऋद्धि यावत् दिव्य देवप्रभाव को देवेन्द्र देवराज शक्र देखें । देवेन्द्र देवराज शक्र द्वारा लब्ध यावत् अभिसमन्वागत दिव्य देवकृद्धि यावत् दिव्य देवप्रभाव को हम जानें, और हमारे द्वारा उपलब्ध यावत् अभिसमन्वागत उस दिव्य देवकृद्धि यावत् देवप्रभाव को देवेन्द्र देवराज शक्र जानें । हे गौतम ! इस कारण (प्रयोजन) से असुरकुमार देव यावत् सौधर्मकल्प एक ऊपर जाते हैं । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
शतक-३ उद्देशक-३ | [१७८] उस काल और उस समय में 'राजगृह' नामक नगर था; यावत् परिषद् (धर्मकथा सुन) वापस चली गई । उस काल और उस समय में भगवान् के अन्तेवासी प्रकृति से भद्र मण्डितपुत्र नामक अनगार यावत् पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले
भगवन् ! क्रियाएँ कितनी कही गई हैं ? हे मण्डितपुत्र ! क्रियाएँ पांच कही गई हैं । -कायिकी, आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातिकी क्रिया ।