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स्थान-३/४/२१४
२१४] देवराज देवेन्द्र शक्र की बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति तीन पल्योपम की हैं । देवराज देवेन्द्र शक्र की आभ्यन्तर परिषद् की देवियों की स्थिति तीन पल्योपम की हैं । देवराज देवेन्द्र ईशान के बाह्य परिषद् देवियों की स्थिति तीन पल्योपम की कही गई हैं ।
[२१५] प्रायश्चित्त तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा-ज्ञानप्रायश्चित्त, दर्शनप्रायश्चित्त और चारित्र-प्रायश्चित्त ।
तीन को अनुद्घातिक 'गुरु' प्रायश्चित्त कहा गया हैं, यथा-हस्तकर्म करनेवाले को, मैथुन सेवन करनेवाले को, रात्रिभोजन करनेवाले को ।
तीन को पारांचिक प्रायश्चित्त कहा गया हैं, यथा-कषाय और विषय से अत्यन्त दुष्ट को परस्पर स्त्यान-गृद्धि निद्रावाले को, ‘गुदा' मैथुन करनेवालों को ।
तीन को अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त कहा गया हैं,यथा-साधर्मिकों की चोरी करनेवाले को, अन्यधार्मिको की चोरी करनेवाले को, हाथ आदि से मर्मान्तक प्रहार करनेवाले को ।
[२१६] तीन को प्रव्रजित करना नहीं कल्पता हैं, यथा-पण्डक को, वातिक को, क्लीब-असमर्थ को । इसी तरह 'उक्त तीन को' मुण्डित करना, शिक्षा देना महाव्रतों का आरोपण करना, एक साथ बैठ कर भोजन करना तथा साथ में रखना नहीं कल्पता है ।
[२१७] तीन वाचना देने योग्य नहीं हैं, यथा-अविनीत को, दूध आदि विकृति के लोलुपी को, अत्यन्त क्रोधी को । तीन को वाचना देना कल्पता हैं, यथा-विनीत को, विकृति में लोलप न होनेवाले को. क्रोध उपशान्त करनेवाले को ।
तीन को समझाना कठिन है, यथा-दुष्ट को, मूढ को और दुराग्रही को । तीन को सरलता से समझाया जा सकता हैं, यथा-अदुष्ट को, अमूढ को और अदुराग्रही को ।।
[२१८]तीन माण्डलिक पर्वत कहे गये हैं, यथा-मानुषोत्तर पर्वत, कुण्डलवर पर्वत, रूचकवर पर्वत ।
[२१९] तीन बड़े से बड़े कहे गये हैं, यथा-सब मेरुपर्वतों में जम्बूद्वीप का मेरुपर्वत, समुद्रों में स्वयंभुरमण समुद्र, कल्पों में ब्रह्मलोक कल्प ।
[२२०] तीन प्रकार की कल्प स्थिति है, यथा- सामायिक कल्पस्थिति, छेदोपस्थापनीय कल्पस्थिति, निर्विशमान, कल्पस्थिति । अथवा तीन प्रकार की कल्पस्थिति कही गई हैं, यथानिर्विष्ट कल्पस्थिति, जिनकल्प स्थिति, स्थविर कल्पस्थिति ।
[२२१] नारक जीवों के तीन शरीर कहे गये हैं, यथा-वैक्रिय, तैजस और कार्मण । असुरकुमारों के तीन शरीर नैरयिकों के समान कहे गये हैं, इसी तरह सब देवों के है ।
पृथ्वीकाय के तीन शरीर कहे गये हैं, यथा-औदारिक, तैजस और कार्मण । इसी तरह वायुकाय को छोड़ कर चतुरिन्द्रिय पर्यन्त तीन शरीर समझने चाहिये ।
[२२२] गुरु सम्बन्धी तीन प्रत्यनीक 'प्रतिकूल आचरण करनेवाले कहे गये हैं, यथाआचार्य का प्रत्यनीक, उपाध्याय का प्रत्यनीक, स्थविर का प्रत्यनीक ।
गति सम्बन्धी तीन प्रत्यनीक कहे गये हैं, यथा-इहलोक-प्रत्यनीक, परलोक-प्रत्यनीक, उभय लोक प्रत्यनीक समूह की अपेक्षा से तीन प्रत्यनीक कहे गये हैं, यथा-कुल प्रत्यनीक, गण-प्रत्यनीक संघ-प्रत्यनीक ।
अनुकम्पा की अपेक्षा से तीन प्रत्यनीक कहे गये हैं, यथा-तपस्वी-प्रत्यनीक, ग्लान