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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
करता, पुनः नहीं करने के लिए तत्पर नहीं होता और यथायोग्य प्रायश्चित्त और तपश्चर्या अंगीकार नहीं करता हैं, यथा- आलोचना करने से मेरा मान महत्त्व कम हो जाएगा अतः आलोचना न करूं । 'इस समय भी मैं वैसा ही करता हूं' इसे निन्दनीय कैसे कहूं ? 'भविष्य में भी मैं वैसा ही करुंगा' 'इसलिए आलोचना कैसे करूं ।
तीन कारणों से मायावी माया करके भी उसकी आलोचना नहीं करता हैं, प्रतिक्रमण नहीं करता हैं-यावत्-तपश्चर्या अंगीकार नहीं करता हैं, यथा- मेरी अपकीर्ति होगी, मेरा अवर्णवाद होगा, मेरा अविनय होगा । तीन कारणों से मायावी माया करके भी आलोचना नहीं करता हैं-यावत्-तप अंगीकार नहीं करता हैं, यथा-मैरी कीर्ति क्षीण होगी, मेरा यश हीन होगा, मेरी पूजा व मेरा सत्कार कम होगा । __ . तीन कारणों से मायावी माया करके उसकी आलोचना करता हैं, यावत्-तप अंगीकार करता हैं, मायावी की इस लोक में निन्दा होती हैं, परलोक भी निन्दनीय होता हैं, अन्य जन्म भी गर्हित होता हैं । तीन कारणों से मायावी माया करके आलोचना करता हैं, यावत्-तप अंगीकार करता हैं, अमायी का यह लोक प्रशस्य होता हैं, परलोक में जन्म प्रशस्त होता हैं, अन्य जन्म भी प्रशंसनीय होता हैं । तीन कारणों से मायावी माया करके आलोचना करता हैं -यावत्-तप अंगीकार करता हैं, ज्ञान के लिये, दर्शन के लिये, चारित्र के लिये ।
[१८२] तीन प्रकार के पुरुष हैं, सूत्र के धारक, अर्थ के धारके, उभय के धारक ।
[१८३] साधू और साध्वियों को तीन प्रकार के वस्त्र धारण करना और पहनना कल्पता हैं, यथा- ऊन का, सन का और सूत का बना हुआ । साधू और साध्यिवों को तीन प्रकार के पात्र धारण करने और परिभोग करने के लिये कल्पते हैं, यथा-तुम्बे का पात्र, लकड़ी का पात्र और मिट्टी का पात्र ।
[१८४] तीन कारणों से वस्त्र धारण करना चाहिए, यथा-लज्जा के लिये, प्रवचन की निन्दा न हो इसलिये, शीतादि परिषह निवारण के लिये । . [१८५] आत्मा को रागद्वेष से बचाने के तीन उपाय कहे गये हैं, यथा-धार्मिक उपदेश का पालन करे, उपेक्षा करे या मौन रहे, उस स्थान से उठ कर स्वयं एकान्त स्थान में चला जाय । तृषादि से ग्लान निग्रन्थ को प्रासुक जल की तीन दत्ति ग्रहण करना कल्पता हैं, यथाउत्कृष्ट, मध्मय और जघन्य ।
[१८६] तीन कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ स्वधर्मी साम्भोगिक के साथ भोजनादि व्यवहार को तोड़ता हुआ वीतराग की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता हैं, यथा-व्रतों में 'गुरुतर' दोष लगाते हुए जिसे स्वयं देखा हो उसे, व्रतों में 'गुरुतर' दोष लगाने की बात के सम्बन्ध में किसी श्रद्धालु से सुनीहो उसे, चौथीबार दोष सेवन करनेवाले को ।
१८७] तीन प्रकार की अनुज्ञा कही गई हैं यथा-आचार्य जो आज्ञा दे, उपाध्याय जो आज्ञा दे गणनायक जो आज्ञा दे।
तीन प्रकार की समनुज्ञा कही गई हैं, आचार्य जो आज्ञा दे, उपाध्याय जो आज्ञा दे, गणनायक जो आज्ञा दे । इसी प्रकार उपसम्पदा और पदवी का त्याग भी समझना ।
[१८८] तीन प्रकार के वचन कहे गये हैं, यथा-तद् वचन, तदन्य वचन और नोवचन तीन प्रकार के अवचन कहे गये हैं, यथा-नो तद्वचन, नो तदन्य वचन और अवचन ।