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समवाय-प्र./३२१
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[३२१] इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में इसी अवसर्पिणी में नौ बलदेवों और नौ वासुदेवों के नौ पिता हुए । जैसे
[३२२] १. प्रजापति, २. ब्रह्म, ३. सोम, ४.रुद्र, ५. शिव, ६. महाशिव, ७. अग्निशखि, ८. दशरथ और ९. वसुदेव ।
[३२३] इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में इसी अवसर्पिणी काल में नौ वासुदेवों की नौ माताएं हुईं । जैसे
[३२४] १. मृगावती, २. उमा, ३. पृथ्वी, ४. सीता, ५. अमृता, ६. लक्ष्मीमती, ७. शेषमती, ८. केकयी और ९. देवकी ।
[३२५] इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में इसी अवसर्पिणी काल में नौ बलदेवों की नौ माताएं हुईं । जैसे
[३२६] १. भद्रा, २. सुभद्रा, ३. सुप्रभा, ४. सुदर्शना, ५. विजया, ६. वैजयन्ती, ७. जयन्ती, ८. अपराजिता और ९. रोहिणी । ये नौ बलदेवों की माताएं थी ।
[३२७] इस जम्बूद्वीप में इस भारतवर्ष के इस अवसर्पिणीकाल में नौ दशारमंडल (बलदेव और वासुदेव समुदाय) हुए हैं । सूत्रकार उनका वर्णन करते हैं
वे सभी बलदेव और वासुदेव उत्तम कुल में उत्पन्न हुए श्रेष्ठ पुरुष थे, तीर्थंकरादि शलाका-पुरुषों के मध्यवर्ती होने से मध्यम पुरुष थे, अथवा तीर्थंकरों के बल की अपेक्षा कम
और सामान्य जनों के बल की अपेक्षा अधिक बलशाली होने से वे मध्यम पुरुष थे । अपने समय के पुरुषों के शौर्यादि गुणों की प्रधानता की अपेक्षा वे प्रधान पुरुष थे । मानसिक बल से सम्पन्न होने के कारण ओजस्वी थे । देदीप्यमान शरीरों के धारक होने से तेजस्वी थे । शारीरिक बल से संयुक्त होने के कारण वर्चस्वी थे, पराक्रम के द्वारा प्रसिद्धि को प्राप्त करने से यशस्वी थे । शरीर की छाया (प्रभा) से युक्त होने के कारण वे छायावन्त थे । शरीर की कान्ति से युक्त होने से कान्त थे, चन्द्र का समान सौम्य मुद्रा के धारक थे, सर्वजनों के वल्लभ होने से वे सुभग या सौभाग्यशाली थे । नेत्रों को अतिप्रिय होने से वे प्रियदर्शन थे ।
समचतुरस्त्र संस्थान के धारक होने से वे सुरूप थे । शुभ स्वभाव होने से वे शुभशील थे । सुखपूर्वक सरलता से प्रत्येक जन उनसे मिल सकता था, अतः वे सुखाभिगम्य थे । सर्व जनों के नयनों के प्यारे थे । कभी नहीं थकनेवाले अविच्छिन्न प्रवाहयुक्त बलशाली होने से वे ओधबली थे, अपने समय के सभी पुरुषों के बल का अतिक्रमण करने से अतिबली थे,
और महान् प्रशस्त या श्रेष्ठ बलशाली होने से वे महाबली थे । निरुपक्रम आयुष्य के धारक होने से अनिहत अर्थात् दूसरे के द्वारा होने वाले घात या मरण से रहित थे, अथवा मल्ल-युद्ध में कोई उनको पराजित नहीं कर सकता था, इसी कारण वे अपराजित थे ।
बड़े-बड़े युद्धों में शत्रुओं का मर्दन करने से वे शत्रु-मर्दन थे, सहस्रों शत्रुओं के मान का मथन करने वाले थे । आज्ञा या सेवा स्वीकार करने वालों पर द्रोह छोड़कर कृपा करने वाले थे । वे मात्सर्य-रहित थे, क्योंकि दूसरों के लेश मात्र भी गुणों के ग्राहक थे । मन वचन काय की स्थिर प्रवृत्ति के कारण वे अचपल (चपलता-रहित) थे । निष्कारण प्रचण्ड क्रोध से रहित