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समवाय-प्र./२१५
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प्ररूपण किये जाते हैं, हेतु, दृष्टान्त आदि के द्वारा दर्शाये जाते हैं, विशेष रूप से निर्दिष्ट किये जाते हैं, और उपनय-निगमन के द्वारा उपदर्शित किये जाते हैं ।
आचाराङ्ग के अध्ययन से आत्मा वस्तु-स्वरूप का एवं आचार-धर्म का ज्ञाता होता है, गुणपर्यायों का विशिष्ट ज्ञाता होता है तथा अन्य मतों का भी विज्ञाता होता है । इस प्रकार आचार-गोचरी आदि चरणधर्मों की, तथा पिण्डशुद्धि आदि करणधर्मों की प्ररूपणा-इसमें संक्षेप से की जाती है, विस्तार से की जाती है, हेतु-दृष्टान्त से उसे दिखाया जाता है, विशेष रूप से निर्दिष्ट किया जाता और उपनय-निगमन के द्वारा उपदर्शित किया जाता है ।
[२१६] सूत्रकृत क्या है-उसमें क्या वर्णन है ?
सूत्रकृत के द्वारा स्वसमय सूचित किये जाते हैं, पर-समय सूचित किये जाते हैं, स्वसमय और पर-समय सूचित किये जाते हैं, जीव सूचित किये जाते हैं, अजीव सूचित किया जाते हैं, जीव और अजीव सूचित किये जाते हैं, लोक सूचित किया जाता है, अलोक सूचित किया जाता है और लोकअलोक सूचित किया जाता है ।
सूत्रकृत के द्वारा जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्त्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष तक के सभी पदार्थ सूचित किये जाते हैं । जो श्रमण अल्पकाल से ही प्रव्रजित हैं जिनकी बुद्धि खोटे समयों या सिद्धान्तों के सुनने से मोहित है, जिनके हृदय तत्त्व के विषय में सन्देह के उत्पन्न होने से आन्दोलित हो रहे हैं और सहज बुद्धि का परिणमन संशय को प्राप्त हो रहा है, उनकी पाप उपार्जन करनेवाली मलिन मति के दुर्गुणों के शोधन करने के लिए क्रियावादियों के एक सौ अस्सी, अक्रियावादियों के चौरासी, अज्ञानवादियों के सड़सठ और विनयवादियों के बत्तीस, इन सब तीन सौ तिरेसठ अन्य वादियों का व्यूह अर्थात् निराकरण करके स्व-समय (जैन सिद्धान्त) स्थापित किया जाता है । नाना प्रकार के दृष्टान्तपूर्ण युक्ति-युक्त वचनों के द्वारा पर-मत के वचनों की भली भाँति से निःसारता दिखलाते हुए, तथा सत्पद-प्ररूपणा आदि अनेक अनुयोग द्वारों के द्वारा जीवादि तत्त्वों को विविध प्रकार से विस्तारानुगम कर परम सद्भावगुण-विशिष्ट, मोक्षमार्ग के अवतारक, सम्यग्दर्शनादि में प्राणियों के प्रवर्तक, सकलसूत्रअर्थसम्बन्धी दोषों से रहित, समस्त सद्गुणों से सहित, उदार, प्रगाढ अन्धकारमयी दुर्गों में दीपकस्वरूप, सिद्धि और सुगति रूपी उत्तम गृह के लिए सोपान के समान, प्रवादियों के विक्षोभ से रहित निष्प्रकम्प सूत्र और अर्थ सूचित किये जाते हैं ।
सूत्रकृतांग की वाचनाएँ परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्यात हैं, प्रति-पत्तियां संख्यात हैं, वेढ संख्यात हैं, श्लोक संख्यात हैं, और नियुक्तियां संख्यात हैं ।
अंगो की अपेक्षा यह दूसरा अंग है । इसके दो श्रुतस्कन्ध हैं, तेईस अध्ययन हैं, तेतीस उद्देसनकाल हैं, तेतीस समुद्देशनकाल हैं, पद-परिमाण से छत्तीस हजार पद हैं, संख्यात अक्षर, अनन्तगम और अनन्त पर्याय हैं । परिमित त्रस और अनन्त स्थावर जीवों का तथा नित्य, अनित्य सूत्र में साक्षात् कथित एवं नियुक्ति आदि द्वारा सिद्ध जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित पदार्थों का सामान्य-विशेष रूप में कथन किया गया है; नाम, स्थापना आदि भेद करके प्रज्ञापन किया है, नामादि के स्वरूप का कथन करके प्ररूपण किया गया है, उपमाओं द्वारा दर्शित किया गया है, हेतु दृष्टान्त आदि देकर निदर्शित किया गया है और उपनय-निगमन द्वारा उपदर्शित किए गए हैं ।