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समवाय-९/१३
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नौ हजार वर्ष के बाद आहार की इच्छा होती है ।
कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो नौ भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण प्राप्त करेंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे । समवाय-९ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(समवाय-१० [१४] श्रमण धर्म दस प्रकार का कहा गया है । जैसे-शान्ति, मुक्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, सत्य, संयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्यवास ।
चित्त-समाधि के दश स्थान कहे गये हैं । जैसे-जो पूर्व काल में कभी उत्पन्न नहीं हुई, ऐसी सर्वज्ञ-भाषित श्रुत और चारित्ररूप धर्म को जानने की चिन्ता का उत्पन्न होना यह चित्त की समाधि या शान्ति के उत्पन्न होने का पहेला स्थान है (१) । जैसा पहले कभी नहीं देखा, ऐसे याथातथ्य स्वप्न का देखना चित्त-समाधि का दूसरा स्थान है (२) । जैसा पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा पूर्व भव का स्मरण करने वाला संज्ञिज्ञान होना यह चित्त-समाधि का तीसरा स्थान है । पूर्व भव का स्मरण होने पर संवेग और निर्वेद के साथ चित्त में परम प्रशममाव जागृत होता है (३) । जैसा पहले कभी नहीं हुआ, ऐसा देव-दर्शन होना, देवों की दिव्य वैभव-परिवार आदिरूप ऋद्धि का देखना, देवों की दिव्य द्युति (शरीर और आभूषणादि की दीप्ति) का देखना, और दिव्य देवानुभाव (उत्तम विक्रियादि के प्रभाव) को देखना यह चित्त-समाधि का चौथा स्थान है, क्योंकि ऐसा देव-दर्शन होने पर धर्म में दृढ श्रद्धा उत्पन्न होती है (४) । जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा लोक प्रत्यक्ष जानने वाला अवधिज्ञान उत्पन्न होना यह चित्त-समाधि का पांचवां स्थान है । अवधिज्ञान के उत्पन्न होने पर मन में एक अपूर्व शान्ति और प्रसन्नता प्रकट होती है (५) ।
जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा लोक को प्रत्यक्ष देखने वाला अवधिदर्शन उत्पन्न होना यह चित्त-समाधि का छठा स्थान है (६) । जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा [अढाई द्वीप-समुद्रवर्ती संज्ञी, पंचेन्द्रिय पर्याप्तक] जीवों के मनोगत भावों को जानने वाला मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न होना यह चित्त-समाधि का सातवां स्थान है (७) । जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा सम्पूर्ण लोक को प्रत्यक्ष [त्रिकालवर्ती पर्यायों के साथ] जानने वाला केवलज्ञान उत्पन्न होना यह चित्त-समाधि का आठवां स्थान है (८) । जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा [सर्व चराचर] लोक को देखने वाला केवल-दर्शन उत्पन्न होना, यह चित्तसमाधि का नौंवा स्थान है (९) । सर्व दुःखों के विनाशक केवलिमरण से मरना यह चित्तसमाधि का दशवां स्थान हैं (१०) ।
इसके होने पर यह आत्मा सर्व सांसारिक दुःखों से मुक्त हो सिद्ध बुद्ध होकर अनन्त सुख को प्राप्त हो जाता है ।
मन्दर (सुमेरु) पर्वत मूल में दश हजार योजन विष्कम्म (विस्तार) वाला कहा गया है ।
अरिष्टनेमि तीर्थंकर दश धनुष ऊँचे थे । कृष्ण वासुदेव दश धनुष ऊंचे थे । राम बलदेव दश धनुष ऊंचे थे ।
[१५] दश नक्षत्र ज्ञान की वृद्धि करने वाले कहे गये हैं यथा-मृगशिर, आर्द्रा, पुष्प,