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स्थान - १०/-/९४२
मिश्रक- जीवित और मृत जीवों के समूह को देखकर "यह अजीव समूह है" ऐसा कहना । जीवाजीव मिश्रक- जीवित और मृत जीवों के समूह को देखकर “इतने जीवित हैं और इतने मृत हैं" ऐसा कहना । अनन्त मिश्रक- पत्ते सहित कन्द मूल को 'अनन्तकाय' कहना । प्रत्येक मिश्रक - मोगरी सहित मूली को प्रत्येक वनस्पति कहना । अद्धामिश्रक-सूर्योदय न होने पर भी "सूर्योदय हो गया " ऐसा कहना । अद्धाद्धामिश्रक - एक प्रहर दिन हुआ है “फिर भी दुपहर हो गया" ऐसा कहना ।
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[९४३] दृष्टिवाद के दस नाम हैं, यथा-दृष्टिवाद, हेतुवाद, भूतवाद, तत्ववाद, सम्यग्वाद, धर्मवाद, भाषाविषय, पूर्वगत, अनुयोगगत, सर्व प्राण भूत जीव सत्त्व सुखवाद । [९४४] शस्त्र दश प्रकार के हैं, यथा
[ ९४५] अग्नि, विष, लवण, स्नेह, क्षार, आम्ल, दुष्प्रयुक्तमन, दुष्प्रयुक्तवचन, दुष्प्रयुक्तकाय, अविरतिभाव ।
[९४६ ] (वाद के) दोष दस प्रकार के हैं, यथा
[९४७ ] तज्जात दोष-प्रतिवादी के जाति कुल को दोष देना, मति भंग - विस्मरण, प्रशास्तृदोष सभापति या सभ्यों का निष्पक्ष न रहना । परिहरण दोष-प्रतिवादी के दिये हुए दोष का निराकरण न कर सकना । स्वलक्षण दोष-स्वकथित लक्षण का सदोष होना । कारण दोष- साध्य के साथ साधन का व्यभिचार । हेतुदोष - सदोष हेतु देना । संक्रामण दोष - प्रस्तुत में अप्रस्तुत का कथन । निग्रहदोष-प्रतिज्ञा हानि आदि निग्रह स्थान का कथन । वस्तुदोषपक्ष में दोष का कथन ।
[९४८] विशेष दोष दस प्रकार के हैं । यथा
[९४९] वस्तु- पक्ष में प्रत्यक्ष निराकृत आदि दोष का कथन, तज्जातदोष- जाति कुल आदि को दोष देना, दोष -मतिभंगादि पूर्वोक्त आठ दोषों की अधिकता, एकार्थिक दोषसमानार्थक शब्द कहना, कारणदोष-कारण को विशेष महत्त्व देना, प्रत्युत्पन्नदोष - वर्तमान में उत्पन्न दोष का विशेष रूप से कथन, नित्यदोष-वस्तु को एकान्त नित्य मानने से उत्पन्न होने वाले दोष, अधिकदोष-वाद काल में आवश्यकता से अधिक कहना, स्वकृतदोष, उपनीत दोष - अन्य का दिया हुआ दोष ।
[९५०] शुद्ध वागनुयोग दस प्रकार का है, यथा- चकारानुयोग - वाक्य में आने वाले "च" का विचार । मकारानुयोग - वाक्य में आने वाले "म" का विचार । अपिकारानुयोग" अपि " शब्द का विचार । सेकारानुयोग-आनन्तर्यादि सूचक "से" शब्द का विचार । सायंकारानुयोग -ठीक अर्थ में प्रयुक्त "सायं" का विचार । एकत्वानुयोग - एक वचन के सम्बन्ध में विचार । पृथक्त्वानुयोग द्विवचन और बहुवचन का विचार । संयूथानुयोग -समास सम्बन्धी विचार | संक्रामितानुयोग - विभक्ति विपर्यास के सम्बन्ध मे विचार । भिन्नानुयोग सामान्य बात कहने के पश्चात् क्रम और काल की अपेक्षा से उसके भेद करने के सम्बन्ध में विचार करना ।
[९५१] दान दस प्रकार का होता है, यथा
[९५२] अनुकम्पादान - कृपा करके दीनों और अनाथों को देना, संग्रहदान -आपत्तियों में सहायता देना, भयदान - भय से राजपुरुषों को कुछ देना, कारुण्यदान- शोक अर्थात पुत्रादि वियोग के कारण कुछ देना । लज्जादान -इच्छा न होते हुऐ भी पांच प्रमुख व्यक्तियों के कहने