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स्थान - १०/-/९१५
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[९१५] मानुषोत्तर पर्वत मूल में दश सौ बावीस (१०२२) योजन चौड़ा है । [ ९१६] सभी अंजनक पर्वत भूमि में दश सौ (एक हजार) योजन गहरे हैं । भूमि पर मूल में दश हजार योजन चौड़े हैं। ऊपर से दश सौ ( एक हजार ) योजन चौड़े हैं । सभी दधिमुख पर्वत दश सौ (एक हजार ) योजन भूमि में गहरे हैं । सर्वत्र समान पल्यंक संस्थान से संस्थित हैं और दश हजार योजन चौड़े हैं ।
सभी रतिकर पर्वत दश सौ (एक हजार ) योजन ऊँचे हैं । दश सौ (एक हजार) गाऊ भूमि में गहरे हैं । सर्वत्र समान झालर के संस्थान से स्थित हैं और दशहजार योजन चौड़े हैं । [९१७] रुचकवर पर्वत दश सौ योजन भूमि में गहरे हैं । मूल में (भूमि पर ) दस हजार योजन चौड़े हैं । ऊपर से दस सौ योजन चौड़े हैं । इसी प्रकार कुण्डलवर पर्वत का प्रमाण भी कहना चाहिए ।
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[ ९१८ ] द्रव्यानुयोग दस प्रकार का है, यथा- द्रव्यानुयोग, जीवादि द्रव्यों का चिन्तन यथा-गुण- पर्यायवद् द्रव्यम् । मातृकानुयोग-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीन पदों का चिन्तन । यथा - उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्तं सत् । एकार्थिकानुयोग - एक अर्थ वाले शब्दों का चिन्तन यथा - जीव, प्राण, भूत और सत्व इन एकार्थवाची शब्दों का चिन्तन । करणानुयोग-साधकतम कारणों का चिन्तन । यथा -काल, स्वभाव, निषति और साधकतम कारण से कर्त्ता कार्य करता है । अर्पितानर्पित- यथा - अर्पित- विशेषण सहित - यह संसारी जीव हैं । अनर्पित विशेषण रहित - यह जीव द्रव्य हैं । भाविताभावित - यथा - अन्य द्रव्य के संसर्ग से प्रभावित - भावित कहा जाता है और अन्य द्रव्य के संसर्ग से अप्रभावित अभावित कहा जाता है - इस प्रकार द्रव्यों का चिन्तन किया जाता है । बाह्याबाह्य- बाह्य द्रव्य और अबाह्य द्रव्यों का चिन्तन । शास्वताशास्वत - शास्वत और अशास्वत द्रव्यों का चिन्तन । तथाज्ञान- सम्यगदृष्टि जीवों का जो यथार्थ ज्ञान है वह तथाज्ञान है । अतथाज्ञान- मिथ्यादृष्टि जीवों का जो एकान्त ज्ञान है वह अतथाज्ञान है ।
असुरेन्द्र चमर का तिगिच्छा कूट उत्पात पर्वत मूल में दस- सौ बाईस (१०२२) योजन चौड़ा है । असुरेन्द्र चमर के सोम लोकपाल का सोमप्रभ उत्पाद पर्वत दस सौ (एक हजार ) योजन का ऊँचा है, दस सौ (एक हजार) गाऊ का भूमि में गहरा है, मूल में (भूमि पर ) दससौ ( एक हजार ) योजन का चौड़ा है । असुरेन्द्र चमर के यमलोकपाल का यमप्रभ उत्पात पर्वत का प्रमाण भी पूर्ववत् है ।
इसी प्रकार वरुण के उत्पात पर्वत का प्रमाण है । इसी प्रकार वैश्रमण के उत्पात पर्वत का प्रमाण है । वैरोचनेन्द्र बलि का रुचकेन्द्र उत्पात पर्वत भूल में दस सौ बावीस (१०२२) योजन चौड़ा है ।
जिस प्रकार चमरेन्द्र के लोकपालों के उत्पात पर्वतो का प्रमाण कहा है उसी प्रकार बलि के लोकपालों के उत्पात पर्वतों का प्रमाण कहना चाहिए ।
नागकुमारेन्द्र धरण का धरणप्रभ उत्पात पर्वत दस सौ (एक हजार ) योजन ऊँचा है, दस सौ (एक हजार) गाऊ का भूमि में गहरा है, मूल में एक हजार योजन चौड़ा है । इसी प्रकार धरण के कालवाल आदि लोकपालों के उत्पात पर्वतों का प्रमाण है । इसी प्रकार भूतानन्द और उनके लोकपालों के उत्पात पर्वतों का प्रमाण है । इसी प्रकार लोकपाल