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स्थान- ९/-/८२७
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[८२७] ये स्वर्ण के बने हुए और वैडूर्यमणि के द्वार वाले हैं, अनेक रत्नों से परिपूर्ण हैं । इन सब पर चन्द्र-सूर्य के समान गोल चक्र के चिन्ह हैं ।
[८२८] इन निधियों के नामवाले तथा पल्यस्थिति वाले देवता इन निधियों के अधिपति हैं ।
[८२९] किन्तु इन निधिओं से उत्पन्न वस्तुएँ देने का अधिकार नहीं है, ये सभी महानिधियां चक्रवर्ती के अधीन होती हैं ।
[८३०] विकृतियां (विकार के हेतु भूत) नौ प्रकार की हैं, यथा-दूध, दही, मक्खन, धृत, तेल, गुड़, मधु, मद्य, मांस ।
[८३१] औदारिक शरीर के नौ छिद्रों से मल निकलता है, यथा-दो कान, दो नेत्र, दो नाक, मुख, मूत्रस्थान, गुदा ।
[८३२] पुण्य नौ प्रकार के होते हैं, अन्नपुण्य, पानपुण्य, लयनपुण्य, शयनपुण्य, वस्त्रपुण्य, मनपुण्य, वचनपुण्य, कायापुण्य नमस्कारपुण्य ।
[८३३] पाप के स्थान नौ प्रकार के हैं, यथा- प्राणातिपात, मृषावाद यावत् परिग्रह और क्रोध, मान, माया और लोभ ।
[८३४] पाप श्रुत नौ प्रकार के हैं, यथा
[८३५] उत्पात, निमित्त, मंत्र, आख्यायक, चिकित्सा, कला, आकरण, अज्ञान, मिथ्याप्रवचन
[८३६ ] नैपुणिक वस्तु नौ हैं, यथा-संख्यान - गणित में निपुण, निमित्त त्रैकालिक शुभाशुभ बताने वाले ग्रन्थों में निपुण, कायिक-स्वर शास्त्रों में निपुण, पुराण-अठारह पुराणों में निपुण, परहस्तक - सर्व कार्य में निपुण, प्रकृष्ट पंडित अनेक शास्त्रों में निपुणं, वादी - वाद में निपुण, भूति कर्म-मंत्र शास्त्रों में निपुण, चिकित्सक - चिकित्सा करने में निपुण ।
[८३७] भगवान् महावीर के नौ गण थे, यथा-गोदास गण, उत्तर बलिस्सह गण, उद्देह गण, चारण गण, उर्ध्ववातिक गण, विश्व वादी गण, कामार्द्धिक गण, मानव गण और कोटिक गण ।
[८३८] श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों की नव कोटी शुद्ध भिक्षा कही है, यथा-स्वयं जीवों की हिंसा नहीं करता है, दूसरों से हिंसा नहीं करवाता है, हिंसा करने वालों का अनुमोदन नहीं करता है, स्वयं अन्नादि को पकाता नहीं हैं, दूसरों से पकवाता नहीं है, पकाने वालों का अनुमोदन नहीं करता है, स्वयं आहारादि खरीदता नहीं हैं, दूसरों से खरीदवाता नहीं है, खरीदने वालों का अनुमोदन नहीं करता है ।
[ ८३९] ईशानेन्द्र के वरुण लोकपाल की नौ अग्रमहिषियां हैं ।
[८४०] ईशानेन्द्र की अग्रमहिषियों की स्थिति नव पल्योपम की हैं । ईशान कोण में देवियों की उत्कृष्ट स्थिति नव पल्योपम की हैं। नौ देव निकाय हैं, यथा
[८४१] सारस्वत, आदित्य, वन्हि, वरुण तथा
[८४२] गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध, आग्नेय, रिष्ट ।
[८४३] अव्याबाध देवों के नवसौ नौ देवों का परिवार है, इसी प्रकार अगिच्चा और रिट्ठा देवों का परिवार है ।