________________
स्थान- ७/-/५९३
१३५
जीव ही है" किन्तु जो लोग लोक में जीव अजीव दोनों मानते हैं उन्हें वह मिथ्यावादी कहने लगता है । ऐसे विभंग ज्ञानी को पृथ्वी, वायु और तेजस्काय का सम्यग्ज्ञान होता ही नहीं अतः वह उस विषय में मिथ्या भ्रम में पड़ा होता है ।
[५९४] योनि संग्रह सात प्रकार का है, यथा- अंडज, पक्षी, मछलियां, सर्प इत्यादि अंडे से पैदा होनेवाले । पोतज - हाथी, बागल आदि चमड़े से लिपटे हुए उत्पन्न होनेवाले । जरायुज - मनुष्य, गाय आदि जर के साथ उत्पन्न होनेवाले । रसज - रस में उत्पन्न होनेवाले । संस्वेदज-पसीने से उत्पन्न होनेवाले । सम्मूर्छिम - माता-पिता के संयोग के बिना उत्पन्न होने वाले जीव-कृमि आदि । उद्भिज - पृथ्वी का भेदन कर उत्पन्न होनेवाले जीव खंजनक आदि । अंडज की गति और आगति सात प्रकार की होती है । पोतज की गति और आगति सात प्रकार की होती है । इसी प्रकार उद्भिज पर्यन्त सातों की गति और आगति जाननी चाहिए । अंडज यदि अंडजों में आकर उत्पन्न होता है तो अंडजों पोतजों यावत् उद्भिजों से आकर उत्पन्न होता है । इसी प्रकार अंडज अंडजपन को छोड़कर अंडज पोतज यावत् उद्भिज जीवन को प्राप्त होता है ।
1
[५९५] आचार्य और उपाध्याय सात प्रकार से गण का संग्रह करते हैं । यथाआचार्य और उपाध्याय गण में रहने वाले साधुओं को सम्यक् प्रकार से आज्ञा (विधि अर्थात् कर्तव्य के लिए आदेश ) या धारणा (अकृत्य का निषेध) करे । आगे पांचवे स्थान में कहे अनुसार ( यावत् आचार्य और उपाध्याय गच्छ को पूछकर प्रवृत्ति करे किन्तु गच्छ को पूछे बिना प्रवृत्ति न करे ) कहें । आचार्य और उपाध्याय गण में अप्राप्त उपकरणों को सम्यक् प्रकार से प्राप्त करे । आचार्य और उपाध्याय गण में प्राप्त उपकरणों की सम्यक् प्रकार से रक्षा एवं सुरक्षा करे किन्तु जैसे तैसे न रखे ।
आचार्य और उपाध्याय सात प्रकार से गण का असंग्रह करते हैं । यथा - आचार्य या उपाध्याय गण में रहने वाले साधुओं को आज्ञा या धारणा सम्यक् प्रकार से न करे । इसी प्रकार यावत् प्राप्त उपकरणों की सम्यक् प्रकार से रक्षा न करे ।
[५९६] पिण्डैषणा सात प्रकार की कही गई है, यथा- असंसृष्टा देने योग्य आहार से हाथ या पात्र लिप्त न हो ऐसी भिक्षा लेना । संसृष्टा देने योग्य आहार से हाथ या पात्र लिप्त हो ऐसी भिक्षा लेना । उध्धृता - गृहस्थ अपने लिए रांधने वासण के में से आहार बाहर निकाले व ऐसा आहार ले । अल्पलेपा - जिस आहार से पात्र में लेप न लगे ऐसा आहार (चणाआदि) ले । अवगृहीता-भाजन में परोषा हुआ आहार ले । प्रगृहीता - परोषने के लिये हाथ में लिया हुआ अथवा खाने के लिए लिया हुआ आहार ही ले । उज्झितधर्मा - फेंकने योग्य आहार ही भिक्षा में ले ।
ईसी प्रकार पाणैषणा भी सात प्रकार की कही गई है ।
अवग्रह प्रतिमा सात प्रकार की कही गई है । यथा - "मुझे अमुक उपाश्रय ही चाहिये” ऐसा निश्चय करके आज्ञा मांगे । “मेरे साथी साधुओं के लिए उपाश्रय की याचना करूँगा” और उनके लिए जो उपाश्रय मिलेगा उसी में मैं रहूँगा । मैं अन्य साधुओं के लिए उपाश्रय की याचना करूँगा किन्तु मैं उसमें नहीं रहूँगा । मैं अन्य साधुओं के लिए उपाश्रय की याचना नहीं करूँगा किन्तु अन्य साधुओं द्वारा याचित उपाश्रय में मैं रहूँगा । मैं अपने