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स्थान- ५/२/४७३
पांच सौ धनुष ऊंची थी । सुन्दरी नाम की आर्या भी इतनी ही ऊंची थी ।
[४७४] पांच कारणों से सोया हुआ मनुष्य जागृत होता है, यथा- शब्द सुनने से, हाथ आदि के स्पर्श से भूख लगने से, निद्रा क्षय से, स्वप्न दर्शन से ।
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[ ४७५] पांच कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी को पकड़ कर रखे ये सहारा दे तो भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है । साध्वी को यदि कोई उन्मत्त पशु या पक्षी मारता हो । दुर्ग या विषम मार्ग से साध्वी प्रस्खलित हो या गिर रही हो । निर्ग्रन्थी कीचड़ में फस गई हो या लिपट गई हो । निर्ग्रन्थी को नाव पर चढ़ाना हो या उतारना हो । जो निर्ग्रन्थी विक्षिप्त चित्त, क्रुद्ध, यक्षाविष्ट, उन्मत्त, उपसर्ग प्राप्त, कलह से व्याकुल, प्रायश्चित - युक्त यावत्-भक्त-पान प्रत्याख्यात हो अथवा संयम से च्युत की जा रही हो ।
[४७६] गण में आचार्य और उपाध्याय के पांच अतिशय । यथा - आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय में प्रवेश करके धूल भरे पैरों को दूसरे साधुओं से झटकवावे या साफ करावे तो भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन नहीं होता । आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय में मल-मूत्र का उत्सर्ग करे या उसकी शुद्धि करे तो भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन नहीं होता । आचार्य और उपाध्याय इच्छा हो तो वैयावृत्य करे, इच्छा न हो तो न करे फिर भी आज्ञा का अतिक्रमण नहीं होता । आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय में एक या दो रात एकेले रहे तो भी आज्ञा का अतिक्रमण नहीं होता । आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के बाहर एक या दो रात अकेले रहे तो भी आज्ञा का अतिक्रमण नहीं होता ।
[४७७] पांच कारणों से आचार्य और उपाध्याय गण छोड़कर चले जाते हैं । गण में आचार्य और उपाध्याय की आज्ञा या निषेध का सम्यक् प्रकार से पालन न होता हो । गण में वय और ज्ञान ज्येष्ठ का वन्दनादि व्यवहार सम्यक् प्रकार से पालन करवा न सके तो । गण में श्रुतकी वाचना यथोचित रीति से न दे सके तो । स्वगण की या परगण की निर्ग्रन्थी में आसक्त हो जाय तो । मित्र या स्वजन यदि गण छोड़कर चला जाय तो उसे पुनः स्वगण में स्थापित करने के लिए आचार्य या उपाध्याय गण छोड़कर चला जाय तो ।
[४७८] पांच प्रकार के ऋद्धिमान् मनुष्य हैं, यथा- अर्हन्त, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, भावितात्मा अणगार ।
स्थान- ५ उद्देशक - ३
[४७५] पाँच अस्तिकाय हैं:- यथा - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय ।
धर्मास्तिकाय अवर्ण, अंगध, अरस, अस्पर्श, अरूपी, अजीव, शास्वत, अवस्थित लोकद्रव्य हैं । वह पाँच प्रकार का है, यथा- द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से और गुण से । द्रव्य से - धर्मास्तिकाय एक द्रव्य है, क्षेत्र से लोक प्रमाण है, काल से अतीत में कभी नहीं था - ऐसा नहीं, वर्तमान में नहीं हैं - ऐसा नहीं, भविष्य में कभी नहीं होगा - ऐसा भी नहीं । धर्मास्तिकाय अतीत में था, वर्तमान में हैं और भविष्य में भी रहेगा । वह ध्रुव, नियत, शास्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है । भाव से अवर्ण, अगंध, अरस, और अस्पर्श है । गुण से - गमन सहायक गुण है ।