SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार-२/१/२/१/४०१ ९१ इस तरह गृहस्थकुल के साथ उसके घर में ठहरने से अनेक दोषों की संभावना देखकर तीर्थंकर प्रभु ने भिक्षु के लिए पहले से ही ऐसी प्रतिज्ञा बताई है, यह हेतु, कारण और उपदेश दिया है कि वह ऐसे गृहस्थकुलसंसक्त मकान में न ठहरे, न ही कायोत्सर्गादि क्रियाएँ करे । [४०२] साधु के लिए गृहस्थ-संसर्गयुक्त उपाश्रय में निवास करना अनेक दोषों का कारण है क्योंकि उसमें गृहपति, उसकी पत्नी, पुत्रियाँ, पुत्रवधूएँ, दास-दासियाँ, नौकर-नौकरानियाँ आदि रहती हैं । कदाचित वे परस्पर एक-दूसरे को कटु वचन कहें, मारें-पीटें, बंदे करें या उपद्रव करें । उन्हें ऐसा करते देख भिक्षु के मन में ऊँचे-नीचे भाव आ सकते हैं । इसलिए तीर्थंकरों ने पहले से ही साधु के लिए ऐसी प्रतिज्ञा बताई है, हेतु, कारण या उपदेश दिया है कि वह गृहस्थसंसर्गयुक्त उपाश्रय में न ठहरे, न कायोत्सर्गादि करे । [४०३] गृहस्थों के साथ एक मकान में साधु का निवास करना इसलिए भी कर्मबन्ध का कारण है कि उसमें गृहस्वामी अपने प्रयोजन के लिए अग्निकाय को उज्जवलित-प्रज्वलित करेगा, प्रज्वलित अग्नि को बुझाएगा । वहाँ रहते हुए भिक्षु के मन में कदाचित् ऊँचे-नीचे परिणाम आ सकते हैं कि ये गृहस्थ अग्नि को उज्जवलित करें अथवा उज्जवलित न करें, तथा ये अग्नि को प्रज्वलित करें अथवा प्रज्वलित न करें, अग्नि को बुझा दें या न बुझाएँ । इसीलिए तीर्थंकरों ने पहले से साधु के लिए ऐसी प्रतिज्ञा बताई है, यह हेतु, कारण और उपदेश दिया है कि वह उस उपाश्रय में न ठहरे, न कायोत्सर्गादि क्रिया करे । [४०४] गृहस्थों के साथ एक जगह निवास करना साधु के लिए कर्मबन्ध का कारण है । जैसे कि उस मकान में गृहस्थ के कुण्डल, करधनी, मणि, मुक्ता, चांदी, सोना या सोने के कड़े, बाजूबंद, तीनलड़ा-हार, फूलमाला, अठारह लड़ी का हार, नौ लड़ी का हार, एकावली हार, मुक्तावली हार, या कनकावली हार, रत्नावली हार, अथवा वस्त्राभूषण आदि से अलंकृत और विभूषित युवती या कुमारी कन्या को देखकर भिक्षु अपने मन में ऊँच-नीच संकल्पविकल्प कर सकता है कि ये आभूषण आदि मेरे घर में भी थे, एवं मेरी स्त्री या कन्या भी इसी प्रकार की थी, या ऐसी नहीं थी । इसीलिए तीर्थंकरों ने पहले से ही साधुओं के लिए ऐसी प्रतिज्ञा का निर्देश दिया है, ऐसा हेतु, कारण और उपदेश दिया है कि साधु ऐसे उपाश्रय में न ठहरे, न कायोत्सर्गादि क्रियाएँ करे । [४०५] गृहस्थों के साथ एक स्थान में निवास करे वाले साधु के लिए कि उसमें गृहपत्नियाँ, गृहस्थ की पुत्रियाँ, पुत्रवधुएँ, उसकी धायमाताएँ, दासियाँ या नौकरानियाँ भी रहेंगी । उनमें कभी परस्पर ऐसा वार्तालाप भी होना सम्भव है कि “ये जो श्रमण भगवान होते हैं, वे शीलवान्, वयस्क, गुणवान, संयमी, शान्त, ब्रह्मचारी एवं मैथुन धर्म से सदा उपरत होते हैं । अतः मैथुन-सेवन इनके लिए कल्पनीय नहीं है । परन्तु जो स्त्री इनके साथ मैथुन-क्रीड़ा में प्रवृत्त होती है, उसे ओजस्वी, तेजस्वी, प्रभावशाली, रूपवान् और यशस्वी तथा संग्राम में शूरवीर, चमक-दमक वाले एवं दर्शनीय पुत्र की प्राप्ति होती है ।" इस बातें सुनकर, उनमें से पुत्र-प्राप्ति की इच्छुक कोई स्त्री उस तपस्वी भिक्षु को मैथुन-सेवन के लिए अभिमुख कर ले, ऐसा सम्भव है । इसीलिए तीर्थंकरों ने साधुओं के लिए पहले से ही ऐसी प्रतिज्ञा बताई है, यावत् साधु ऐसे गृहस्थों से संसक्त उपाश्रय में न ठहरे, न कायोत्सर्गादि क्रिया करे ।
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy