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________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद यदि वह यह जाने कि ऐसा उपाश्रय पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित है तो उसका प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करके यतनापूर्वक स्थानादि कार्य कर सकता है । वह साधु या साध्वी ऐसा उपाश्रय जाने कि असंयत- गृहस्थ साधुओं को उसमें ठहराने की दृष्टि से चौकी, पट्टे, नसैनी या ऊखल आदि सामान एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जा रहा है, अथवा कई पदार्थ बाहर निकाल रहा है, यदि वैसा उपाश्रय - अपुरुषान्तरकृत यावत् अनासेवित हो तो साधु उसमें कायोत्सर्गादि कार्य न करे । यदि फिर वह जान जाए कि वह उपाश्रय पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित है, तो उसका प्रतिलेखन- प्रमार्जन करके यतनापूर्वक उसमें स्थानादि कार्य करे । ९० [४००] वह साधु या साध्वी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने, जो कि एक स्तम्भ पर है, या मचान पर है, दूसरी आदि मंजिल पर है, अथवा महल के ऊपर है, अथवा प्रासाद के तल पर बना हुआ है, अथवा ऊँचे स्थान पर स्थित है, तो किसी अन्यन्तगाढ कारण के बिना उक्त उपाश्रय में स्थान - स्वाध्याय आदि कार्य न करे । कदाचित् किसी अनिवार्य कारणवश ऐसे उपाश्रय में ठहरना पड़े, तो वहाँ प्रासुक शीतल जल से या उष्ण जल से हाथ, पैर, आँख, दाँत या मुँह एक बार या बार-बार न धोए, वहाँ मल-मूत्रादि का उत्सर्ग न करे, जैसे कि उच्चार, प्रस्त्रवण मुख का मल, नाक का मैल, वमन, पित्त, मवाद, रक्त तथा शरीर के अन्य किसी भी अवयव के मल का त्याग वहाँ न करे, क्योंकि केवलज्ञानी प्रभु ने इसे कर्मों के आने का कारण बताया है । वह (साधु) वहाँ से मलोत्सर्ग आदि करता हुआ फिसल जाए या गिर पड़े । ऊपर से फिसलने या गिरने पर उसके हाथ, पैर, मस्तक या शरीर के किसी भी भाग में, या इन्द्रिय पर चोट लग सकती है, ऊपर से गिरने से स्थावर एवं त्रस प्राणी भी घायल हो सकते हैं, यावत् प्राणरहित हो सकते हैं । अतः भिक्षुओं के लिए तीर्थंकर आदि द्वारा पहले से ही बताई हुई यह प्रतिज्ञा है, हेतु है, कारण है और उपदेश है कि इस प्रकार के उच्च स्थान में स्थित उपाश्रय में साधु कायोत्सर्ग आदि कार्य न करे । [ ४०१ ] वह भिक्षु या भिक्षुणी जिस उपाश्रय को स्त्रियों से, बालकों से, क्षुद्र प्राणियों से या पशुओं से युक्त जाने तथा पशुओं या गृहस्थ के खाने-पीने योग्य पदार्थों से जो भरा हो, तो इस प्रकार के उपाश्रय में साधु कायोत्सर्ग आदि कार्य न करे । साधु का गृहपतिकुल के साथ निवास कर्मबन्ध का उपादान कारण है । गृहस्थ परिवार के साथ निवास करते हुए हाथ पैर आदि का कदाचित् स्तम्भन हो जाए अथवा सूजन हो जाए, विशुचिका या वमन की व्याधि उत्पन्न हो जाए, अथवा अन्य कोई ज्वर, शूल, पीड़ा, दुःख या रोगातंक पैदा हो जाए, ऐसी स्थिति में वह गृहस्थ करुणाभाव से प्रेरित होकर उस भिक्षु के शरीर पर तेल, घी, नवनीत, अथवा वसा से मालिश करेगा । फिर उसे प्रासुक शीतल जल या उष्ण जल से स्नान कराएगा अथवा कल्क, लोध, वर्णक, चूर्ण या पद्म से घिसेगा, शरीर पर लेप करेगा, अथवा शरीर का मैल दूर करने के लिए उबटन करेगा । तदनन्तर प्रासुक शीतल जल से या उष्ण जल से एक धोएगा या, मल-मलकर नहलाएगा, अथवा मस्तक पर पानी छीटेगा तथा अरणी की लकड़ी को परस्पर रगड़ कर अनि उज्जवलित प्रज्वलित करके साधु के शरीर को थोड़ा अधिक तपायेगा ।
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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