SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार- २/१/१/२/३४६ दे तो उस आहार को प्रासुक एषणीय जानकर मिलने पर ग्रहण करे । [३४७] वह भिक्षु या भिक्षुणी अर्ध योजन की सीमा से पर संखडि हो रही है, यह जानकर संखडि में निष्पन्न आहार लेने के निमित्त जाने का विचार न करे । ७१ यदि भिक्षु या भिक्षुणी यह जाने कि पूर्व दिशा में संखडि हो रही है, तो वह उसके प्रति अनादर भाव रखते हुए पश्चिम दिशा को चला जाए । यदि पश्चिम दिशा में संखडि जाने तो उसके प्रति अनादर भाव से पूर्व दिशा में चला जाए । इसी प्रकार दक्षिण दिशा में संखड जाने तो उत्तर दिशा में चला जाए और उत्तर दिशा में संखडि होती जाने तो उसके प्रति अनादर बताता हुए दक्षिण दिशा में चला जाए । संखडि जहाँ भी हो, जैसे कि गाँव में हो, नगर में हो, खेड़े में हो, कुनगर में हो, मडंब में हो, पट्टन में हो, द्रोणमुख में हो, आकर में हो, आश्रम में हो, सन्निवेश में हो, यावत् राजधानी में हो, इनमें से कहीं भी संखडि जाने तो संखडि के निमित्त मन में संकल्प लेकर न जाए । केवलज्ञानी भगवान् कहते हैं यह कर्मबन्धन का स्थान है। संखडि में संखडि के संकल्प से जाने वाले भिक्षु को आधाकर्मिक, औद्देशिक, मिश्रजात, क्रीतकृत, प्रामित्य, बलात् छीना हुआ, दूसरे के स्वामित्व का पदार्थ उसकी अनुमति के बिना लिया हुआ या सम्मुख लाकर दिया हुआ आहार सेवन करना होगा । क्योंकि कोई भावुक गृहस्थ भिक्षु के संखडि में पधारने की सम्भावना से छोटे द्वार को बड़ा बनाएगा, बड़े द्वार को छोटा बनाएगा, विषम वासस्थान को सम बनाएगा तथा सम वासस्थान को विषम बनाएगा । इसी प्रकार अधिक वातयुक्त वासस्थान को निर्वात बनाएगा या निर्वात वासस्थान को अधिक वातयुक्त बनाएगा । वह भिक्षु के निवास के लिए उपाश्रय के अन्दर और बाहर हरियाली को काटेगा, उसे जड़ से उखाड़ कर वहाँ संस्तारक बिछाएगा । इस प्रकार संखडि में जाने को भगवान् ने मिश्रजात दोष बताया है । इसलिए संयमी निर्ग्रन्थ इस प्रकार नामकरण विवाह आदि के उपलक्ष्य में होने वाली पूर्व-संखडि अथवा मृतक के पीछे की जाने वाली पश्चात् संखडि को ( अनेक दोषयुक्त) संखडि जान कर जाने का मन में संकल्प न करे । यह उस भिक्षु या भिक्षुणी की समग्रता है कि वह समस्त पदार्थों में संयत या समित व ज्ञानादि सहित होकर सदा प्रयत्नशील रहे । ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन- १ उद्देशक- ३ [३४८] कदाचित् भिक्षु अथवा अकेला साधु किसी संखडि में पहुँचेगा तो वहाँ अधिक सरस आहार एवं पेय खाने-पीने से उसे दस्त लग सकता है, या वमन हो सकता है। अथवा वह आहार भलीभाँति पचेगा नहीं; फलतः कोई भयंकर दुःख या रोगातंक पैदा हो सकता है । इसीलिए केवली भगवान् ने कहा 'यह ( संखडिगमन) कर्मों का उपादान कारण है ।' [३४९] यहाँ भिक्षु गृहस्थों-गृहस्थपत्नियों अथवा परिव्राजक परिवाजिकाओं के साथ एकचित्त व एकत्रित होकर नशीला पेय पीकर बाहर निकल कर उपाश्रय ढूँढने लगेगा, जब ---
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy