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________________ ४८ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद चाहिए । मुनिवर । तू देख ! यह (हिंसामूलक चिकित्सा) महान् भयरूप है । (इसलिए चिकित्सा के निमित्त भी) किसी प्राणी का अतिपात/वध मत कर । [१९२] हे मुने ! समझो, सुनने की इच्छा करो, मैं धूतवाद का निरूपण करूँगा । (तुम) इस संसार में आत्मत्व से प्रेरित होकर उन-उन कुलों में शुक्र-शोणित के अभिषेक-से माता के गर्भ में कललरूप हुए, फिर अर्बुद और पेशी रूप बने, तदनन्तर अंगोपांग-स्नायु, नस, रोम आदि से क्रम से अभिनिष्पन्न हुए, फिर प्रसव होकर संवर्द्धित हुए, तत्पश्चात् अभिसम्बुद्ध हुए, फिर धर्म-श्रवण करके विरक्त होकर अभिनिष्क्रमण किया इस प्रकार क्रमशः महामुनि बनते हैं । [१९३] मोक्षमार्ग-संयम में पराक्रम करते हुए उस मुनि के माता-पिता आदि करुणविलाप करते हुए यों कहते हैं - 'तुम हमें मत छोड़ो, हम तुम्हारे अभिप्राय के अनुसार व्यवहार करेंगे, तुम पर हमें ममत्व है । इस पकार आक्रन्द करते हुए वे रुदन करते हैं ।' (वे रुदन करते हुए स्वजन कहते हैं-) 'जिसने माता-पिता को छोड़ दिया है, ऐसा व्यक्ति न मुनि हो सकता है और न ही संसार-सागर को पार कर सकता हैं ।' वह मुनि (पारिवारिक जनों का विलाप सुनकर) उनकी शरण में नहीं जाता । वह तत्त्वज्ञ पुरुष भला कैसे उस (गृहवास) में रमण कर सकता हैं ? मुनि इस ज्ञान को सदा अच्छी तरह बसा ले । - ऐसा मैं कहता हूँ ।। | अध्ययन-६-उद्देशक-२ [१९४] (काम-रोग आदि से) आतुर लोक (समस्त प्राणिजगत्) को भलीभाँति जानकर, पूर्व संयोग को छोड़कर, उपशम को प्राप्त कर, ब्रह्मचर्य में वास करके वसे (संयमी साधु) अथवा (सराग साधु) धर्म को यथार्थ रूप से जानकर भी कुछ कुशील व्यक्ति उस धर्म का पालन करने में समर्थ नहीं होते । [१९५] वे वस्त्र, पात्र, कम्बल एवं पाद-प्रोंछन को छोड़कर उत्तरोत्तर आनेवाले दुःसह परिषहों को नहीं सह सकने के कारण (मुनि-धर्म का त्याग कर देते हैं ) । विविध काम-भोगों को अपनाकर गाढ़ ममत्व रखने वाले व्यक्ति का तत्काल (प्रव्रज्यापरित्याग के) अन्तर्मुहूर्त में या अपरिमित समय में शरीर छूट सकता है । इस प्रकार वे अनेक विघ्नों और द्वन्द्वों या अपूर्णताओं से युक्त काम-भोगों से अतृप्त ही रहते हैं। [१९६] यहाँ कई लोग, धर्म को ग्रहण करके निर्ममत्वभाव से धर्मोपकरणादि से युक्त होकर, अथवा धर्माचरण में इन्द्रिय और मन को समाहित करके विचरण करते हैं । वह अलिप्त/अनासक्त और सुदृढ़ रहकर (धर्माचरण करते हैं) । समग्र आसक्ति को छोड़कर वह (धर्म के प्रति) प्रणत महामुनि होता है, (अथवा) वह महामुनि संयम में या कर्मों को धूनने में प्रवृत्त होता है । (फिर वह महामुनि) सर्वथा संग का (त्याग) करके (यह भावना करे कि) 'मेरा कोई नहीं हैं, इसलिए 'मैं अकेला हूँ ।' वह इस (तीर्थंकर के संघ) में स्थित, विरत तथा ('समाचारी में) यतनाशील अनगार
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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