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आचार- १/२/१/६३
अध्ययन- २
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लोकविजय
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उद्देसक - 9
[ ६३ ] जो गुण (इन्द्रियविषय) है, वह ( कषायरुप संसार का ) मूल स्थान है । जो मूल स्थान है, वह गुण है । इस प्रकार विषयार्थी पुरुष, महान् परिताप से प्रमत्त होकर, जीवन बताता है । वह इस प्रकार मानता है- “मेरी माता है, मेरा पिता है, मेरा भाई है, मेरी बहन है, मेरी पत्नी है, मेरा पुत्र है, मेरी पुत्री है, मेरी पुत्र- वधू है, मेरा सखा - स्वजन- सम्बन्धीसहवासी है, मेरे विविध प्रचुर उपकरण, परिवर्तन, भोजन तथा वस्त्र हैं ।" इस प्रकार - मेरे पन में आसक्त हुआ पुरुष, प्रमत्त होकर उनके साथ निवास करता है ।
वह प्रमत्त तथा आसक्त पुरुष रात-दिन परितप्त / चिन्ता एवं तृष्णा से आकुल रहता है । काल या अकाल में प्रयत्नशील रहता है, वह संयोग का अर्थी होकर, अर्थ का लोभी बनकर लूटपाट करने वाला बन जाता है । सहसाकारी - दुःसाहसी और बिना विचारे कार्य करने वाला है । विविध प्रकार की आशाओं में उसका चित्त फँसा रहता है । वह बार-बार शस्त्रप्रयोग करता है । संहारक बन जाता है |
इस संसार में कुछ - एक मनुष्यों का आयुष्य अल्प होता है । जैसे
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[६४] श्रोत्र- प्रज्ञान के परिहीन हो जाने पर, इसी प्रकार चक्षु प्रज्ञान के, ध्राण- प्रज्ञान के, रस- प्रज्ञान के, और स्पर्श प्रज्ञान के परिहीन होने पर ( वह अल्प आयु में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है) । वय अवस्था को तेजी से जाते हुए देखकर वह चिंताग्रस्त हो जाता है और फिर वह एकदा मूढभाव को प्राप्त हो जाता है ।
[ ६५ ] वह जिनके साथ रहता है, वे स्वजन उसका तिरस्कार करने लगते हैं, उसे कटु व अपमानजनक वचन बोलते हैं । बाद में वह भी उन स्वजनों की निंदा करने लगता है । हे पुरुष ! वे स्वजन तेरी रक्षा करने में या तुझे शरण देने में समर्थ नहीं हैं । तू भी उन्हें त्राण, या शरण देने में समर्थ नहीं है । वह वृद्ध पुरुष, न हंसी- विनोद के योग्य रहता है, न खेलने के, न रति सेवन के और न श्रृंगार के योग्य रहता है ।
[६६] इस प्रकार चिन्तन करता हुआ मनुष्य संयम साधना के लिए प्रस्तुत हो जाये । इस जीवन को एक स्वर्णिम अवसर समझकर धीर पुरुष मुहूर्त भर भी प्रमाद न करे । अवस्थाएँ बीत रही हैं । यौवन चला जा रहा है ।
[ ६७ ] जो इस जीवन के प्रति प्रमत्त है, वह हनन, छेदन, भेदन, चोरी, ग्रामघात, उपद्रव और उत्त्रास आदि प्रवृत्तियों में लगा रहता है । अकृत काम मैं करूंगा' इस प्रकार मनोरथ करता रहता है । जिन स्वजन आदि के साथ वह रहता है, वे पहले कभी उसका पोषण करते हैं । वह भी बाद में उन स्वजनों का पोषण करता है । इतना स्नेह-सम्बन्ध होने पर भी वे (स्वजन ) तुम्हारे त्राण या शरण के लिए समर्थ नहीं हैं । तुम भी उनको त्राण व शरण देने में समर्थ नहीं हो ।
[ ६८ ] (मनुष्य) उपभोग में आने के बाद बचे हुए धन से, तथा जो स्वर्ण एवं भोगोपभोग की सामग्री अर्जित -संचित करके रखी है उसको सुरक्षित रखता है । उसे वह कुछ गृहस्थों के भोग के लिए उपयोग में लेता है । ( प्रभूत भोगोपभोग के कारण फिर) कभी उसके